Tuesday, January 31, 2017

हिन्दू संगठनों ने देश व्यापी आंदोलन करने की चेतावनी..!!!



हिन्दू संगठनों ने देश व्यापी आंदोलन करने की चेतावनी..!!!
कहा - संत श्री आशारामजी बापू की रिहाई के लिए अब हम चुप नही बैठेंगे।


भारत ही नही पूरे विश्व भर में भारतीय संस्कृति का डंका बजाने वाले, गली-गली गांव-गांव में गीता रामायण का ज्ञान पहुँचाने वाले और धर्म परिवर्तन कर चुके लाखों लोगो की हिन्दू धर्म में वापसी करवाने वाले संत श्री आशाराम जी बापू को षड़यंत्र के तहत 3 वर्ष 4 महीने से जोधपुर जेल में बंद किया हुआ है । 
              हिन्दू संगठनों ने देश व्यापी आंदोलन करने की चेतावनी..!!!


आज तक उन पर दोषी होने का एक भी सबूत नही मिल पाया । इस के बावजूद उन को रिहा नही किया जा रहा और तो और कई बार बेल तक खारिज कर दी गयी ।

शर्म की बात तो ये है कि देश में हजारों हिन्दू संगठन और करोड़ों हिन्दू होते हुए भी एक निर्दोष संत को रिहा नही करवा पाए ।


मगर अब इस का बीड़ा उठाने के लिए पंजाब के हिन्दू संगठन मैदान में कूद पड़े हैं । उन्होंने प्रण लिया है कि जब तक बापू जी को रिहा नहीं करवा लेते तब तक हम चैन से नही बैठेंगे । 

इस अभियान को सफल करने के लिए फिलहाल शनिदेव वेलफेयर ट्रस्ट, कट्टर हिन्दू सेना, विश्व् हिन्दू परिषद धर्म प्रसार, हिन्दू सेना, बजरंग दल, युवा सेवा संघ, शिव सेना पंजाब आदि संगठन आगे आए है । 

30 जनवरी 2017 को सभी संगठनों ने मिल कर शनिदेव मंदिर से डी सी दफ्तर लुधियाना तक रैली निकाल कर प्रदर्शन किया है । रैली के बाद मुकेश खुराना, परविंदर भट्टी, अश्वनी शर्मा, सेहजपाल पाली, विमल नय्यर आदि कई लोगों ने डी सी लुधियाना को प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और राष्ट्र्पति के नाम ज्ञापन सौंपा ।

 सभी संगठनों ने कहा कि अगर शीघ्र अति शीघ्र बापू जी को रिहा नही किया गया तो हम पहले पंजाब स्तर और फिर देश व्यापी आंदोलन करेंगे । उन्होंने सरकार को 15 दिन का अल्टीमैटम दिया है।


उन्होंने कहा कि देश में कई अपराधियों को न्यायालय बेल दे रहा है । कइयों को रिहा कर दिया है और बापू जी का एक भी दोष साबित नही हुआ फिर भी उन को बेल तक भी नही दी जा रही है । 

ये एक हिन्दू संत के साथ बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है । उन्होंने कहा कि अब हम किसी भी कीमत पर चुप नहीं बैठेंगे !

स्त्रोत्र : पंजाब लाइव न्यूज : लुधियाना, अनिल अग्निहोत्री।

गौरतलब है कि बिना अपराध सिद्ध हुए बापू आसारामजी साढ़े तीन साल से जोधपुर जेल में बंद हैं । उनको अभी तक जमानत नही मिल पाने पर अनेक हिन्दू संगठनों ने एवं उनके करोड़ों भक्तों ने देश-भर में कई रैलियां निकाली, धरने पर बैठे । यहाँ तक कि दिल्ली जंतर-मंतर पर तो जब से बापू आसारामजी अंदर गये हैं तब से आज तक वहाँ उनके भक्त और हिन्दू संगठनों द्वारा धरना चल रहा है ।

आज हर आम इंसान ये जान चुका है कि संत आसारामजी बापू को षड़यंत्र के तहत फंसाया गया है फिर भी कानून क्यों उनको न्याय देने को तैयार नहीं..???

क्या ये कोई सोची समझी साजिश तो नहीं..???

क्यों एक के बाद एक दोषी रिहा हो रहे हैं और संत आसारामजी बापू को जमानत तक नहीं...???

आखिर इन हिन्दू संत के साथ हो रहे अन्याय का जिम्मेदार कौन..???

सोचो हिन्दू !!!
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Monday, January 30, 2017

बॉलीवुड में शुरू हुआ इस्लामीकरण !

बॉलीवुड में शुरू हुआ इस्लामीकरण!

क्या अब शाहरुख खान अब्दुल लतीफ के बाद  ‘ओसामा’ और ‘अफजल’ को भी हीरो बना देगा?


हाल ही में प्रदर्शित हुर्इ शाहरुख खान की फिल्म रईस गुजरात के शराब माफिया और आतंकवादी अब्दुल लतीफ के जीवन पर आधारित है। फिल्म में शाहरुख ने अब्दुल लतीफ की भूमिका निभायी है।
                      बॉलीवुड में शुरू हुआ इस्लामीकरण!

फिल्म के निर्देशक राहुल ढोलकिया ने इसे भले ही अस्वीकार किया हो, किंतु शाहरुख द्वारा फिल्म में पहने चश्मे का फ्रेम तक अब्दुल लतीफ की रियल लाइफ से लिया गया है, तो निर्देशक साहब का झूठ भी बेपर्दा हो चुका है।

1980 के दशक में अहमदाबाद में कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। इन दंगों के बीच मुसलमानों को नेता मिला जिसका नाम था अब्दुल लतीफ, व्यवसाय से शराब माफिया, जिसे लेकर आज शाहरुख खान ने फिल्म बनार्इ है। 

असामाजिक गतिविधियों के आरोप में जेल में बंद लतीफ ने इसके बाद ही केवल 5 सीटों पर नगरपालिका चुनाव लड़ा आैर मुसलमानों के एक साथ मजबूत वोट बैंक के आधार पर जीत दर्ज की। इसके बाद गुजरात में हुई ढेरों हिन्दुओं की हत्याओं में वांछित और मुंबई बम धमाकों में अभियुक्त लतीफ 1992 में दुबई के रास्ते पाकिस्तान भाग गया था। किसी घटनाक्रम को अंजाम देने 1995 में वो भारत वापस आ गया। किंतु नवंबर 1995 में गुजरात आतंकवाद निरोधक दल ने लतीफ को पुरानी देहली के एक पीसीओ बूथ से गिरफ्तार कर लिया।

इसके बाद लतीफ करीब दो साल तक साबरमती जेल में रहा। फिर नवंबर 1997 में खबर मिली कि लतीफ ने भागने की कोशिश की और पुलिस मुठभेड में मारा गया। एक शराब माफिया एवं आतंकी अब्दुल लतीफ को पहले भारत के कानून ने चुनाव लड़ने का अधिकार दिया और अब शाहरुख खान जैसे पाकिस्तान परस्त अभिनेता उसे एक नायक की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं।

भारत में जहां 20 साल से ज्यादा के परिश्रम से बनी एक संस्कृत फिल्म को साम्प्रदायिक कह कर रोक दिया जाता है, वहीं आतंकी दाउद और अब्दुल लतीफ को नायक के तौर पर दिखाने पर भी किसी को आपत्ति नहीं होती, यह भारत के लिए दुर्देव9 है।

इस सब के बीच भारत के कथित धर्मनिरपेक्षतावादी भी घुटने टेक देते है। तो वो दिन भी दूर नहीं जब ओसामा बिन लादेन को भी एक हीरो के तौर पर बॉलीवुड फिल्म में दिखाए और शाहरुख ही उसमें वो किरदार निभाए!


जब तक गुलशन कुमार थे तब तक हिंदुत्व का खूब बोलबाला था व इस्लामी करण नही हो पा रहा था इसलिए उनकी हत्या करवा दी गई । अब हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाली बहुत सारी फिल्में बन रही है और उसके खिलाफ कोई बोलने वाला भी नही है ।
यह भी एक बहुत बड़ा सवाल है कि सेंसर बोर्ड भी ऐसी फिल्मों को पास करता क्यों है..??


आज तक औरंगजेब, तैमूर, गजनी आदि की असलियत पर फिल्म क्यों नही बनाई जाती है ???

जिस पद्मावती ने स्वाभिमान के लिए जौहर किया उसके इतिहास के तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करके फिल्म ‘पद्मावती’ निदेशक संजय लीला भंसाली बना रहा था उससे करणी सेना के कार्यकर्ताआें ने मारपीट की तो भंसाली हिंदुओं को आतंकवादी कहने लगा लेकिन बंगाल में कितने हिन्दुओ के घर तोड़ दिए बहु-बहनो की इज्जत लूटी, मार पीट की तब भंसाली को आतंकवाद क्यों नही दिखाई दिया???

संगठन करणी सेना ने कहा है कि, संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म पद्मावती में अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के बीच एक बेहद आपत्तिजनक दृश्य डाला है।। इस दृश्य में अलाउद्दीन खिलजी एक सपना देखता है जिसमें वो रानी पद्मावती के साथ है।। करणी सेना का दावा है कि वास्तव में खिलजी और पद्मावती ने कभी एक दूसरे को आमने सामने देखा तक नहीं और इतिहास के किसी पुस्तक में भी इस तरह के किसी सपने का कोई उल्लेख नहीं है।

करणी सेना का दावा है कि, रानी पद्मावती राजपूत थी और उनकी छवि फिल्म में गलत तरीके से दिखाई गई इसलिए उन्होंने विरोध प्रदर्शन भी किया।

भारतीय संस्कृति को तोड़ने का बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है ।

 बॉलीवुड में इस्लामी धर्म को बढ़ावा देकर हिन्दू संस्कृति को तोड़ने का कार्य पूरे जोर-शोर से चल रहा है।

हिंदुस्तानी सावधान रहें ।

Sunday, January 29, 2017

पहले की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में आये भारी बदलाव !!

भारत में पत्रकारिता का इतिहास एवं आज की  पत्रकारिता..!!

1780 को आज के दिन मतलब 29 जनवरी 1780 को भारत में पहला अंग्रेजी अखबार बंगाल गजट छपा था। तब से लेकर अब तक देश में हजारों न्‍यूज पेपर्स, टीवी चैनल्‍स और ऑनलाइन वेबसाइट्स आ चुकी हैं। 

आज प्रतियोगिता की अंधी दौड़ के चक्‍कर में कई बार गलत रिपोर्टिंग के चलते ऐसे हालात भी पैदा हुए हैं जिससे किसी एक को नहीं बल्कि पूरे सिस्‍टम को भी नुकसान उठाना पड़ गया। 

पहले की पत्रकारिता और आज की पत्रकरिता में आये भारी बदलाव !!

विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन् 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था । 

उस समय पत्थर या धातु की पट्टी होती थी, जिस पर समाचार अंकित होते थे ।  

15वीं शताब्दी में अखबार छापने की मशीन का अविष्कार किया गया ।

भारत में पहला अखबार 29 जनवरी 1780 में प्रकाशित हुआ । इसका प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था । यह अखबार कोलकाता से अंग्रेजी में छपता था ।

1819 में बंगाली भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। ।

1822 में गुजराती और 1826 में हिंदी में प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ ।

अंग्रेजों ने तो देश को तोड़ने के लिए पत्रकारिता शुरू की थी । लेकिन देशभक्तों ने पत्रकारिता इसलिए शुरू की ताकि जनता तक सही खबरें पहुँच सके और समय-समय पर देश की आंतरिक स्थिति से जनता को अवगत कराकर जागरूक किया जा सकें तथा देश में हो रही अन्यायपूर्ण गतिविधियों क खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाई जा सकें ।

जिससे देश की संस्कृति सुरक्षित रहें और देश में अमन चमन बना रहें ।

परन्तु समय के हेर-फेर में पत्रकारिता में कुछ स्वार्थी और बेईमान लोग घुस गए, जिन्हें देश की अस्मिता से कुछ लेना-देना नही, बस केवल पैसों और अपने नाम के लिए काम करने लगे ।

ऐसे स्वार्थी लोग आज अन्न भारत देश का खाते हैं और काम विदेशी NGO'S के लिए करते हैं ।

इतिहास में वर्णित है कि हमारी भारतीय संस्कृति को मिटाने का प्रयास तो समय-समय पर होता ही आया है ।

भारत के गौरवपूर्ण इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि भारत की गरिमा बढ़ाने वाले यहाँ के साधु-संत हैं। जिन्होंने समाज को सही मार्गदर्शन देकर भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर किया है ।

अब अगर भारतीय संस्कृति को नष्ट करना है तो यहाँ के साधु-संतो के प्रति जनता के मन में नफरत पैदा करनी होगी तभी भारतीय संस्कृति को नष्ट किया जा सकता है ।

इसलिए संत और समाज के बीच विदेशी फंड से चलने वाली भारतीय मीडिया ने खाई का काम किया है ।

आज आप देख सकते हैं कि जितना समाजसेवी सुप्रतिष्ठित हस्तियों और साधु-संतो के खिलाफ मीडिया द्वारा बोला जाता है उतना तो बड़े से बड़े देशद्रोही के खिलाफ भी मीडिया नहीं बोलती!
 पर फिर भी कई भोले-भाले लोग अपनी सूक्ष्म मति का उपयोग न करके मीडिया की मनगढ़ंत बातों को सच मान कर अपने ही धर्म के विरुद्ध बोलने लग जाते हैं । 

कई सालों से देश में हजारों विदेशी NGO'S ने अपना काम शुरू कर दिया है।

1984 में ये विदेशी NGO'S भारत में 
टी.वी. लेकर आये । पहले टी.वी. के माध्यम से भारत की जनता को धार्मिक सीरियल दिखाना चालू किया और DDन्यूज शुरू हुआ । जिससे लोगो में टीवी देखने और न्यूज द्वारा देश की गतिविधियाँ जानने की रूचि बढ़े।

फिर जब जनता को टीवी देखने की आदत पड़ गई तब देश की संस्कृति को तोड़ने के इरादे से धीरे-धीरे प्यार भरी फिल्में चालू की गई । उसके बाद अर्धनग्न अवस्था वाली फिल्में, संस्कृति विरोधी सीरियल और साधु संतों, हिन्दू संगठनों तथा देश की संस्कृति विरोधी न्यूज की शुरूवात कर दी गई ।

ऐसा सब दिखा भारतीय संस्कृति को नीचा और विदेशी संस्कृति को ऊँचा दिखाकर लोगों का ब्रेनवाश किया गया । इसी कारण आज के युवावर्ग में अपनी संस्कृति के प्रति नफरत तथा पाश्चत्य सभ्यता के प्रति आकर्षण बढ़ गया है।

आज समाज में खुलेआम गन्दी फिल्में, भारतीय संस्कृति विरोधी न्यूज दिखाई जाती है क्योंकि 90% भारत न्यूज चैनल के मालिक विदेशी है । उनको भारत की जनता का ब्रेनवाश करने के लिए ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम संगठनो द्वारा खूब पैसा मिल रहा है ।

अतः मेरे भारतवासियों सावधान हो जाओ...!!!

अपनी संस्कृति की गरिमा पहचानों...!!!

याद करो वो दिन...जब मुगल और अंग्रजो ने अनेको साल हम पर राज किया था । भारत के मंदिर तोड़े गए, हमारी माँ-बहनों की इज्जत लूटी गई, हमारी देश की सम्पति लूटी गई थी ।

उस समय शिवाजी, महाराणा प्रताप , भगत सिंह , चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रन्तिकारी आये और देश को आजाद करवाया ।

हे  भारतवासियों ! भारत के लाखों लोगो ने जो देश की आजादी के लिए अपना बलिदान दिया है उसको खोने न देना ।

आज जो देश की अस्मिता बनाये रखने में सबसे बड़ी दुश्मन बन कर खड़ी है वो है
विदेशी फंड से चलने वाली भारतीय पत्रकारिता ।

अतः सबसे पहले ऐसी बिकाऊ मीडिया का बहिष्कार कर सिर्फ और सिर्फ देशभक्त चैनल सुदर्शन न्यूज ही देखें जो निष्पक्ष और सच्चाई समाज तक पहुँचाने में आगे आता है ।

जय हिन्द!!
जय भारत!!

Friday, January 27, 2017

लाला लाजपतराय जी जयंती 28 जनवरी !!

लाला लाजपतराय जी जयंती 28 जनवरी..!!

"पंजाब केसरी" के नाम से प्रसिद्ध लाला लाजपत राय जी भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे।

जन्म – 28 जनवरी 1865
जन्मस्थान – पंजाब
पिता     – राधाकृष्ण
माता    – गुलाब देवी

लाला लाजपत राय जी हिंदुत्व से बहुत प्रेरित थे, और इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने राजनीति में जाने की सोची। जब वे लाहौर में कानून की पढ़ाई कर रहे थे तभी से वे हिंदुत्व का अभ्यास भी कर रहे थे। वे इस बात को मानते थे कि "हिंदुत्व" राष्ट्र से भी बढ़कर है। वे भारत को एक पूर्ण हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे।

लाला लाजपत राय जी ने कुछ समय हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत की थी । लालाजी, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल इस त्रिमूर्ति को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाता था। इन्हीं तीनों नेताओं ने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की थी ।
लाला लाजपतराय जी जयंती 28 जनवरी

1882 में हिन्दी और उर्दू इनमें से किस भाषा को मान्यता मिलनी चाहिये, इस विषय पर बड़ी बहस चल रही थी। लालाजी हिन्दी की तरफ थे। उन्होंने हजारों लोगों की दस्तखत कराकर सरकार को वैसी एक अर्जी भी दी थी ।

1886 में कानून की उपाधि की परीक्षा देकर दक्षिण पंजाब के हिसार में उन्होंने वकील का व्यवसाय शुरु किया।

1886 में लाहौर को आर्य समाज की तरफ से दयानंद अँग्लो-वैदिक कॉलेज बनवाने का सोचा तो उसके लिए लालाजी ने पंजाब में से पाँच लाख रुपये जमा किये। 1 जून 1886 में कॉलेज की स्थापना हुई। लालाजी उसके सचिव बने।
आर्य समाज के अनुयायी बनकर लाल जी अनाथ बच्चों, विधवा स्त्रियों, भूकंपग्रस्त और अकाल से पीड़ित लोगो की मदद में जाते थे।

1904 में ‘द पंजाब’ नाम का अंग्रेजी अखबार उन्होंने शुरु किया। इस अखबार ने पंजाब में राष्ट्रीय आन्दोलन शुरु कर दिया।

1905 में काँग्रेस की ओर से भारत की बात रखने के लिये लालाजी को इंग्लैंड भेजने का निर्णय लिया गया। उसके लिये उनको जो पैसा दिया गया उसका आधा पैसा उन्होंने दयानंद अँग्लो-वैदिक कॉलेज और आधा अनाथ विद्यार्थियों की शिक्षा के लिये दे दिया और अपने खर्चे से वे इंग्लैंड गए।

1907 में लाला लाजपत रॉय किसानों को सरकार के विरुद्ध भड़काते है ये आरोप लगाकर अंग्रेजों ने उन्हें मंडाले के जेल में छ: महीने रखा। तब अपने पीछे लगी सरकार से पीछा छुड़ाने के लिये वो अमेरिका चले गये। वहाँ के भारतीयों के मन में स्वदेश की, स्वातंत्र्य का लालच निर्माण करने के उन्होंने ‘यंग इंडिया’ अखबार निकाला और भारतीय स्वातंत्र्य आंदोलन को गति देने के लिये ‘इंडियन होमरूल लीग’ की स्थापना की।

स्वदेश के विषय में परदेश के लोगों में विशेष जागृति निर्माण करके 1920 में वो अपने देश भारत लौटे। 1920 में कोलकाता में हुए कॉग्रेस के खास अधिवेशन के लिये उन्हें अध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने असहकार आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल गए। उसके पहले लालाजी ने लाहौर में ‘तिलक  राजनीति शास्त्र स्कूल' नाम से राष्ट्रीय स्कूल शुरु कर दिया था।

लालाजी ने  "लोग सेवक संघ" (पीपल्स सोसायटी) नाम की समाज सेवक की संस्था भी निकाली थी।

1925 में ‘वंदे मातरम’ नाम के उर्दू दैनिक संपादक बनकर उन्होंने काम किया।

1926 के "अंतर्राष्ट्रीय श्रम संमेलन" में उन्होंने भारत के श्रमिको के प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया।

1928 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में भेजी गयी ‘साइमन कमीशन' का विरोध करने के लिए लालाजी बीमार होते हुए भी लाहौर पहुँचे । इस कारण पुलिस बौखला गई और लोगों पर लाठियाँ बरसाने लगी । मृत्यु के इस ताण्डव में लाला लाजपत राय को विशेष निशाना बनाया गया ।
लालाजी का दुर्बल शरीर क्रूर अँग्रेजों द्वारा निर्दयतापूर्वक बरसायी गयी लाठियों को न सह सका और आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करनेवाले इस वीर का नश्वर शरीर 17 नवम्बर, 1928 को इस देवभूमि से उठ गया ।

अपने अंतिम शब्दों में भी लालाजी ने देश-प्रेम तथा जोश का जो उदाहरण दिया, वह किसी घायल शेर की दहाड से कम नहीं था । लालाजी ने कहा : ‘‘मेरे शरीर पर पडी एक-एक चोट ब्रिटिश-साम्राज्य के कफन की कील बनेगी ।

वास्तव में हुआ भी यही । लालाजी की वीरगति प्राप्ति पर जनता में आक्रोश फैल गया तथा सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे वीरों का प्रादुर्भाव हुआ एवं अंततः 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

किंतु जरा विचार कीजिये कि देश को आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले इन वीर शहीदों के सपने को हम कहाँ तक साकार कर सके हैं..???

 हमने उनके बलिदानों का कितना आदर किया है...???

वास्तव में, हमने उन अमर शहीदों के बलिदानों को कोई सम्मान ही नहीं दिया है । तभी तो #स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी हमारा देश पश्चिमी संस्कृति की गुलामी में जकड़ा हुआ है।

इन महापुरुषों की सच्ची पुण्यतिथि तो तभी मनाई जाएगी, जब प्रत्येक भारतवासी उनके जीवन को अपना आदर्श बनायेंगे, उनके सपनों को साकार करेंगे तथा जैसे भारत का निर्माण जैसा वे महापुरुष करना चाहते थे, वैसा ही हम करके दिखायें । यही उनकी पुण्यतिथि मनाना है ।

जयहिंद!!
जय भारत!!

Thursday, January 26, 2017

मीडिया कब तक छुपाएगी सच्चाई समाज से..???

मीडिया कब तक छुपाएगी सच्चाई समाज से..???

देश में कई राज्यो में गौ हत्या पर रोक लगी हुई है लेकिन फिर भी गौ तस्कर रुकते नही हैं अलग-अलग तरीकों से गौ माता को कत्लखाने पहुँचा ही देते हैं ।
                            मीडिया कब तक छुपाएगी सच्चाई समाज से..???

ऐसा ही एक मामला सामने आया है लेकिन मीडिया ने अभी तक चुप्पी साधी है ।

आइये हम आपको बताते हैं सच्चाई...

निवाई (राजस्थान) के पास तीन दिन पहले  पुलिस ने सीएलजी सदस्यों के सहयोग से गोवंश से भरे दो ट्रक जब्त किए हैं। 

थाना प्रभारी ओमप्रकाश वर्मा ने बताया कि शनिवार रात सूचना मिली कि दो ट्रकों में बछड़े ठसाठस भरे हुए हैं सोहेला की ओर जा रहे हैं । नाथड़ी जाकर नाकाबंदी करते हुए झिराना की ओर से आने वाले ट्रकों की जांच शुरू की। इस दौरान दो ट्रक उस ओर आने लगे। मगर नाकाबंदी देख चालकाें ने वाहनों को झिराना की ओर मोड़ लिया। 

पुलिस ने ट्रकों का पीछा करते हुए झिराना पुलिस चौकी को सूचना दी। नानेर में सीएलजी सदस्यों के सहयोग से रास्ते में एक ट्रक आड़ा खड़ा करवाकर गोवंश से भरे ट्रकों को रुकवाया। मगर चालक ट्रकों को रास्ते में छोड़कर भाग गए । पीछा करती हुई पहुंची पुलिस ने ट्रकों को जब्त कर लिया। जांचने पर एक ट्रक में 36 तथा दूसरे में 32 बछड़े मिले। इनमें से चार बछड़े मृत मिले। 

पुलिस ने पशु चिकित्सा प्रभारी डॉ. ए.के पांडे को सूचना मौके पर बुलाया। चिकित्साधिकारी ने मौके पर पहुंचकर घायल बछड़ों का उपचार किया। मृत चारों बछड़ों का पोस्टमार्टम करवाकर जमीन में दफना दिया। शेष बछड़ों को पुलिस ने गोशाला में भिजवाने के लिए पीपलू एसडीएम को सूचना दी। एसडीएम अशोक कुमार सांखला ने सभी 64 बछड़ों को निवाई स्थित संत आशारामजी बापू गौशाला में भेज दिए। 

आपको बता दें कि ये पहली बार नही है जो इन 64 बछडों को ही संत आसारामजी गौशाला में रखा गया हो पहले भी कई बार संत आसारामजी बापू ने कत्लखाने जाती हुई गायों को बचाकर अपने गौशाला में रखा है ।

क्या आपको पता हैं संत आसारामजी बापू के देशभर में बड़ी-बड़ी 9 गौशालाएं हैं ।

संत श्री आशारामजी बापू की गौशालाएँ गौ रक्षा की बनी मिसाल..!!


देश में एक तरफ गौ-माता के कत्लखाने, दूसरी ओर संत आसारामजी गौशालाओं में कत्ल करने के लिए जा रही हजारों गायों को बचाकर  गौशालाओ में रखा है । उन गायों की भी वहां अच्छे से देखभाल की जाती है जो दूध भी नही देती और कई गायें तो बीमार भी रहती हैं उनकी भी वहाँ मौसम अनुसार अच्छी देखभाल की जाती है ।

गरीबों के लिए भी गौशालाएं बनी सहारा..!!!

संत आशारामजी बापू की गौशालाओं द्वारा गौ माता के गौमूत्र, गोबर आदि से धूपबत्ती, खाद, फिनाईल, औषधियाँ आदि का निर्माण कर गौशालाओ को स्वावलम्बी बनाकर अनेक गरीब परिवारों के लिए रोजी-रोटी का द्वार भी खोल दिया ।

गौ माताओं के लिए इतना उत्तम सेवाकार्य किया जा रहा है संत आसारामजी बापू द्वारा लेकिन मीडिया इसको न दिखाकर केवल यही दिखाती है कि कैसे एक हिन्दू संत की छवि को धूमिल कर दिया जाये और करोड़ों ह्रदय में कैसे नफरत भर दी जाये यही इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया का काम है ।


 उनके अनुयायियों द्वारा गौ माता को बचाने के लिए ट्वीटर के जरिये भी वे लोग कई बार भारत में टॉप ट्रेंड में रहे हैं ।

गौरतलब है कि आज बापू आसारामजी 40 महीने से बिना सबूत जेल में हैं । पर उनका केस पढ़ने के बाद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, स्वर्गीय अशोक सिंघल तथा अन्य कई जानी मानी हस्तियों ने कहा है कि उनको अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र के तहत जेल में भेजा गया है लेकिन फिर भी उनके द्वारा बताये गए सेवाकार्यों में उनके शिष्य हमेशा आगे ही रहते हैं ।


लेकिन मीडिया ने ये सब कभी नही बताया और न ही कभी बताएंगी । पर हर समझदार और बुद्धिजीवी अब इस बात को समझ चुका है कि हिन्दू संत आसारामजी बापू को फंसाने में मिशनरियों व मीडिया की सांठ-गांठ है ।

 अतः हिंदुस्तानी सावधान रहें ।

जय हिन्द!!

Wednesday, January 25, 2017

26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) का इतिहास...!!

26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) का इतिहास...!!

गणतन्त्र दिवस भारत का राष्ट्रीय पर्व है जो प्रति वर्ष 26 जनवरी को मनाया जाता है। इसी दिन सन 1950 को भारत का संविधान लागू किया गया था।

26 जनवरी और 15 अगस्त दो ऐसे राष्ट्रीय दिवस हैं जिन्हें हर भारतीय खुशी और उत्साह के साथ मनाता है।

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हमारी मातृभूमि भारत लंबे समय तक ब्रिटिश शासन की गुलाम रही जिसके दौरान भारतीय लोग ब्रिटिश शासन द्वारा बनाये गये कानूनों को मानने के लिये मजबूर थे, भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा लंबे संघर्ष के बाद अंतत: 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिली। 

सन 1929 के दिसंबर में लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ उसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेज सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को स्वायत्तयोपनिवेश(डोमीनियन) का पद नहीं प्रदान करेगी, जिसके तहत भारत ब्रिटिश साम्राज्य में ही स्वशासित एकाई बन जाता, तो भारत अपने को पूर्णतः स्वतंत्र घोषित कर देगा। 
  
26 जनवरी 1930 तक जब अंग्रेज सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। उस दिन से 1947  में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26  जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। तदनंतर स्वतंत्रता प्राप्ति के वास्तविक दिन 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में स्वीकार किया गया। 

26 जनवरी का महत्व बनाए रखने के लिए विधान निर्मात्री सभा (कांस्टीट्यूएंट असेंबली) द्वारा लगभग ढाई साल बाद भारत ने अपना संविधान लागू किया और खुद को लोकतांत्रिक गणराज्य के रुप में घोषित किया। लगभग 2 साल 11 महीने और 18 दिनों के बाद 26 जनवरी 1950 को हमारी संसद द्वारा भारतीय संविधान को पास किया गया। खुद को संप्रभु, लोकतांत्रिक, गणराज्य घोषित करने के साथ ही भारत के लोगों द्वारा 26 जनवरी "गणतंत्र दिवस" के रुप में मनाया जाने लगा।

देश को गौरवशाली गणतंत्र राष्ट्र बनाने में जिन देशभक्तों ने अपना बलिदान दिया उन्हें 26 जनवरी दिन याद किया जाता और उन्हें श्रद्धाजंलि दी जाती है।

गणतंत्र दिवस से जुड़े कुछ तथ्य:

1- पूर्ण स्वराज दिवस (26 जनवरी 1930) को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान 26 जनवरी को लागू किया गया था।

2- 26 जनवरी 1950 को 10:18 मिनट पर भारत का संविधान लागू किया गया था।

3- गणतंत्र दिवस की पहली परेड 1955 को दिल्ली के राजपथ पर हुई थी।

4- भारतीय संविधान की दो प्रत्तियां जो हिन्दी और अंग्रेजी में हाथ से लिखी गई।

5- भारतीय संविधान की हाथ से लिखी मूल प्रतियां संसद भवन के पुस्तकालय में सुरक्षित रखी हुई हैं।

6- भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने गवर्नमैंट हाऊस में 26 जनवरी 1950 को शपथ ली थी।

7- गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं ।

8-  26 जनवरी को हर साल 21 तोपों की सलामी दी जाती है।

9- 29 जनवरी को विजय चौक पर बीटिंग रिट्रीट सेरेमनी का आयोजन किया जाता है जिसमें भारतीय सेना, वायुसेना और नौसेना के बैंड हिस्सा लेते हैं। यह दिन गणतंत्र दिवस के समारोह के समापन के रूप में मनाया जाता है।
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Tuesday, January 24, 2017

मीडिया के लोग धरती पर मानव जाति में सबसे बेईमान हैं : ट्रंप

मीडिया के लोग धरती पर मानव जाति में सबसे बेईमान हैं : ट्रंप 

अभी तक तो भारत में अनगिणत लोगों द्वारा मीडिया के खिलाफ आवाज उठाई गई थी लेकिन अब अमेरिका के राष्ट्रपति ने भी मीडिया की पोल खोल के रख दी ।
                        मीडिया के लोग धरती पर मानव जाति में सबसे बेईमान हैं : ट्रंप 

 अब मीडिया वालों की दोगली एवं कपट भरी रणनीति का चेहरा दुनिया के सामने आ चुका है ।

मीडिया वाले में खबरों के पीछे की खबर छापने के चक्कर में आज अंधी दौड़ चल रही है और इस दौड़ में कई पत्रकार अपनी कल्पनाओं के आधार पर कपोल कल्पित समाचार ही लिख रहे हैं।   

न्यूज चैनल को हर घंटे में सुर्खियां चाहिए और ऐसे में हर बार खबरों को नए ढंग से पेश करने की होड़ मच जाती है। इससे असली खबरें खो जाती हैं और उन्हें गलत ढंग से पेश किया जाता है। इसलिए अब मीडिया से लोगों को नफरत सी हो रही है।

अमेरिका के नए राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप  शपथ ग्रहण समारोह पर दर्शकों की संख्‍या कम बताने पर मीडिया से नाराज हुए और मीडिया को चेतावनी देकर कहा कि गलत रिपोर्टिंग के लिए भुगतना पड़ेगा खामियाजा !!

मीडिया को झूठ की कीमत चुकानी होगी!!

राष्‍ट्रपति ट्रंप ने कहा कि 'काफी सारे लोगों को हमने देखा आपने देखा। मैदान पूरा भरा हुआ था। मैं सुबह उठा और एक नेटवर्क को ऑन किया तो उन्‍होंने एकदम खाली मैदान दिखाया।' उन्होंने कहा करीब एक मिलियन या डेढ़ मिलियन लोग उनके शपथ ग्रहण समारोह में आए थे। चैनल वालों ने वह जगह दिखाई जो एकदम खाली थी और वहां पर शायद कोई नहीं था। 


उन्होंने आगे कहा कि मीडिया ने कहा कि डोनाल्‍ड ट्रंप ज्‍यादा लोगों को आकर्षित न कर सके। 

ट्रंप का मानना है कि शायद लोग बारिश की वजह से घबरा गए लेकिन ईश्‍वर की दया रही और बारिश की वजह से स्‍पीच बर्बाद नहीं हुई। फिर जब मैं शपथ लेकर गया फिर से बारिश होने लगी। लेकिन फिर भी करीब एक से डेढ़ मिलियन लोग इस समारोह में आए थे। 

ट्रंप ने आगे कहा कि फिर भी मीडिया झूठ बोल रहा है और कह रहा है कि करीब 250,000 लोग ही इस समारोह में आए थे। ट्रंप ने चेतावनी दी कि मीडिया को इस झूठ की कीमत चुकानी होगी।

मीडिया के साथ ट्रंप की लड़ाई!!

राष्‍ट्रपति ट्रंप ने यह बात सीआईए के हेडक्‍वार्टर में कही। उन्‍होंने कहा कि वह सीआईए के हेडक्‍वार्टर सिर्फ इसलिए आए हैं क्‍योंकि मीडिया ने यह दिखाने की कोशिश की कि ट्रंप के इंटेलीजेंस समुदाय के साथ मतभेद हैं। ट्रंप ने सीआईए में मौजूद आफिसर्स से कहा कि वह उनसे सबसे पहले इसलिए मिलने आए हैं क्‍योंकि मीडिया के साथ उनकी लड़ाई चल रही है। 

इसके बाद ट्रंप बोले कि, 'मीडिया के लोग धरती पर मानव जाति में सबसे बेईमान हैं।' 

आपको बता दें कि वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी मीडिया पर निशाना साधा था उन्होंने कहा था कि दर्शकों को टीवी पर होने वाली चर्चाओं को देखकर लगता है कि यही राष्ट्रीय खबरें हैं लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत होती है। 

टीवी पत्रकारों को लगता है कि जो कुछ टीवी पर दिखता है वही खबर है और बाकी सब कूड़ा है। मीडिया को इस गलत प्रवृत्ति को छोड़ना होगा क्योंकि लोग झूठी और कल्पित नही बल्कि वास्तविकता और तथ्यों पर आधारित खबर चाहते हैं। 

      
भारतीय मीडिया भी हमेशा से हिंदू विरोधी न्यूज दिखाकर समाज को गुमराह करती आ रही है शायद से इस एजेंडे के पीछे का मकसद भारत में रहकर भारत की संस्कृति को बर्बाद कर देना ही है ।

हिन्दू पानी से होली क्यों खेलते हैं?
फटाखे क्यों जलाते हैं?
भगवान् शिव जी को दूध अर्पण क्यों करते हैं आदि आदि !!

हिन्दू त्यौहारों पर ही मीडिया क्यों बोलती है ईसाई और मस्लिम धर्म त्यौहारों के लिए क्यों नही बोलती..???

क्यों मीडिया के झूठे ट्रायल द्वारा निशाना बनते आ रहे हैं भारत के हिन्दू साधु-संत..??

2004 कांची के शंकराचार्य सरस्वती पर आरोप लगते ही मीडिया ने खूब बदनाम किया पर जब निर्दोष मुक्त हो गए तब कोई न्यूज नही दिखाई !

2008 में साध्वी प्रज्ञा जी को भगवा आतंकवाद कहकर बदनाम किया गया पर आज तक साध्वी जी के खिलाफ एक भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ ये कभी न्यूज में नहीं आया !

2009 में स्वामी नित्यानंद जी के लिए रात-दिन मीडिया ने खूब बदनामी की पर आखिर में निर्दोष बरी किया तो एक मिनट की भी न्यूज नही दिखाई!

और इस दशक का सब से बड़ा मीडिया ट्रायल हुआ हिन्दू धर्म रक्षा मंच के अध्यक्ष संत आशारामजी बापू के लिए!!

एक बालिग लड़की ने आरोप लगाकर #POCSO कानून का दुरूपयोग किया जहाँ FIR में 376 की धारा नहीं है, मेडिकल रिपोर्ट में उस बालिग लड़की के साथ बलात्कार की कोई घटना नहीं घटी और उस के शरीर पर एक खरोंच तक नहीं है फिर भी मीडिया ने समाज को ये कहा कि उस लड़की के साथ बलात्कार हुआ।


डॉक्टर सुब्रह्मणयम स्वामी जी ने संत आसारामजी बापू के केस की FIR पढ़ी और कहा कि सारा केस फर्जी है ।

जब-जब संत आसारामजी बापू की जमानत होने वाली होती तब तब मीडिया  ट्रायल चलता है ।

अब आप खुद सोचिये कि पैसे और TRP के चक्कर में भारतीय मीडिया किस हद तक गिर चुकी है !!

आज-कल की न्यूज को देखकर तो ऐसा लगता है कि मीडिया की कोई जाति दुश्मनी है हिन्दू संस्कृति एवं साधु-संतों के साथ में ।

एक झूठ अगर चिल्ला चिल्लाकर सौ बार बताया जाए तो वो सच लगने लगता है ,
ठीक इसी प्रकार मीडिया ने एक मानसिक तकनीक से हिन्दू संस्कृति एवं साधु-संतों के खिलाफ समाज को गुमराह किया है ।

आज भारतवासियों को समझने की जरुरत है कि जो मीडिया न्यूज दिखाती है उसमें अधिकतर कई गलत खबरें होती हैं अतः इस मीडिया की बेईमानी से सावधान रहें ।

जय हिन्द!!

Monday, January 23, 2017

दिल्ली एवं मुम्बई कोर्ट ने झूठे रेप का आरोप लगाने वाली लड़कियों को लगाई कड़ी फटकार..!!!

दिल्ली एवं मुम्बई कोर्ट ने झूठे रेप का आरोप लगाने वाली लड़कियों को लगाई कड़ी फटकार..!!!

नई दिल्ली  : दुष्कर्म के मामलों को लेकर दिल्ली की एक कोर्ट ने कहा है कि कई बार दुष्कर्म के मामलों में वो महिलाएं भी आरोप लगाती हैं जो पहले तो पुरुष के साथ आपसी सहमति से रिश्ता बनाती हैं लेकिन जब रिश्ता खत्म हो जाता है तब वो बदला लेने की नीयत से कानून को हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं।
दिल्ली एवं मुम्बई कोर्ट ने झूठे रेप का आरोप लगाने वाली लड़कियों को लगाई कड़ी फटकार..!!!


शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि 12 दिसंबर 2013 को नौकरी दिलाने के नाम पर उसके साथ दुष्कर्म किया गया था। पीड़िता के बयान के आधार पर आरोपी शख्स पर विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया। एडिशनल सेशन जज संजीव जैन ने कहा, 'मेरा ऐसा मानना है कि आरोपी और शिकायतकर्ता के बीच शारीरिक संबंध आपसी सहमति से बना था।

यह शिकायत पूरी तरह से गुस्से का नतीजा है जिसमें दोनों पार्टियों के बीच कमीशन की पेमेंट को लेकर लड़ाई हुई। अभियोग पक्ष अपना केस साबित करने में नाकाम रहा।'

जैन ने इस बात की ओर भी ध्यान दिया कि शिकायतकर्ता का बयान एक समान नहीं था। कोर्ट ने पाया कि चीफ के सामने परीक्षा के दौरान शिकायतकर्ता महिला प्रतिपक्षी बन गई। 

कोर्ट ने कहा, 'उसने यह बयान नहीं दिया कि उसके साथ दुष्कर्म हुआ था। उसने यहां तक कह दिया कि उसे मेडिकल परीक्षण के लिए नहीं ले जाया गया था और उसे याद भी नहीं है कि उसने क्या बयान दिया था।'

अभियोग पक्ष का कहना था कि अगर ये आपसी सहमति से बना रिश्ता होता तो महिला कभी भी शिकायत करने पुलिस में नहीं जाती। लेकिन कोर्ट अभियोग पक्ष की इस दलील से सहमत नहीं हुआ और आरोपी को बरी कर दिया गया।

बॉम्बे हाईकोर्ट - ब्रेकअप के बाद रेप का आरोप नहीं लगा सकती लड़की..!!

मुंबई : बॉम्बे हाईकोर्ट ने शुक्रवार को एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि शादी का वादा करके शारीरिक संबंध बनाने के हर मामले को रेप नहीं माना जा सकता। 21 वर्षीय युवक की जमानत याचिका मंजूर करते हुए कोर्ट ने यह कहा। युवक की प्रेमिका ने ब्रेकअप के बाद उस पर रेप का आरोप लगाते हुए केस दर्ज कराया था। जस्टिस मृदुला भाटकर ने कहा कि एक पढ़ी-लिखी लड़की जो शादी से पहले शारीरिक संबंधों के लिए राजी हुई है उसे अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।

'लड़कियां संबंध बनाती हैं लेकिन जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं'
जस्टिस ने कहा, 'धोखाधड़ी के जरिए शारीरिक संबंधों की रजामंदी हासिल करने के मामले अलग हैं लेकिन हर केस में यह नहीं माना जा सकता है।

रिकॉर्ड के लिए कुछ तो सबूत होना चाहिए कि लड़की ने शारीरिक संबंध बनाने के लिए हामी भरी थी। सिर्फ शादी का वादा ऐसे मामलों में आरोप की वजह नहीं बन सकता।' 

जज ने कहा कि जब समाज बदल रहा है तो इसके साथ नैतिकता का भार भी साथ चल रहा है। उन्होंने कहा, 'कई पीढ़ियों ये यहां नैतिकतावादी टैबू है कि यह लड़कियों की जिम्मेदारी है कि शादी के वक्त वह वर्जिन रहें, लेकिन आज के समय में युवा पीढ़ी अलग-अलग तरीकों से एक-दूसरे से घुली-मिली है और सेक्सुअल एक्टिविटी के बारे में काफी जागरूक भी है। बदलाव हो रहे हैं लेकिन समाज में अभी भी नैतिकता का बोझ है। समाज में अभी भी शादी से पहले सेक्स प्रतिबंधित माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में एक लड़की जो किसी लड़के से प्यार करती है और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाती है लेकिन अपने फैसले के बारे में जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है।' 

'रिलेशनशिप खत्म होने बाद बन गया है ये ट्रेंड' 

कोर्ट ने कहा कि रेप के ज्यादातर मामले रिलेशनशिप में दरार आने के बाद दर्ज कराए जा रहे हैं जो कि एक ट्रेंड बन चुका है। कोर्ट लड़की की मुश्किलों के साथ आरोपी की आजादी और जिंदगी के बारे में भी सोचेगा। कोर्ट ने अपने पुराने आदेश को भी दोहराया जिसमें कहा गया था कि बालिग होने के बाद एक पढ़ी लिखी लड़की शादी से पहले शारीरिक संबंध बनाने को लेकर फैसला लेने में सक्षम है और इसके अंजाम के बारे में भी सोच समझ सकती है। 

आपको बता दें कि दिल्ली में बीते छह महीनों में 45 फीसदी ऐसे मामले अदालत में आएं जिनमें महिलाएँ हकीकत में पीड़िता नहीं थीं, बल्कि छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा होने या फिर पुरुषों द्वारा माँगें पूरी न होने पर बलात्कार का केस दर्ज कराया गया था । 

दिल्ली महिला कमीशन के आँकड़ों के अनुसार इनमें से 53.2% मामले झूठे हैं ! 

छह जिला अदालतों के रिकॉर्ड से ये बात सामने आई है कि बलात्कार के 70 फीसदी मामले अदालतों में साबित ही नहीं हो पाते हैं ।


अब ये सोचिये कि जिस पुरुष पर झूठा रेप का केस किया जाता है, उसका जीवन कितना अस्त-व्यस्त हो जाता होगा, समाज में अपमानित होने से ले कर काम-रोजगार पर कितना असर होता होगा ? यह तो भुक्तभोगी सदस्य व उसका परिवार ही समझ सकता है । 

विचार कीजिये कि अगर एक बार ऐसा आरोप आप पर लग जाए । फिर चाहे आप दोषमुक्त भी क्यों न छूट जाएँ, लेकिन समाज सिर्फ आप पर लगे आरोप को याद रखेगा । 

ऐसा जिनके साथ हुआ या हो रहा है क्या उसकी पीड़ा का एहसास कानून लगा सकता है ?

क्या कानून उन निर्दोषों के वो दिन वापिस लौटा सकता है जो निर्दोष होने के बावजूद भी उन्हें जेल में बिताने पड़े !!

कठोर कानून बनाने से क्या बलात्कार संबंधी केस रूक गए ???

उल्टा पहले से अधिक बढ़ गए हैं क्योंकि समस्या का समाधान करने की कोशिश ही नहीं की गयी है।

 सिनेमा, अश्लील साहित्य, समाचार पत्र-पत्रिकाओं, अश्लील वेबसाइटों एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया की वजह से विदेशों की तरह हमारे देश में भी बलात्कार, हत्या जैसे दुष्कर्मों को बढ़ावा मिल रहा है ।


 दुष्कर्म को बढ़ावा देनेवाले कारकों को रोकने की जरूरत सबसे पहले है । यदि सख्त कानून से बलात्कार की घटनाओं पर अंकुश सम्भव होता तो नये बलात्कार निरोधक कानून बनने के बाद बलात्कार की शिकायतों (कम्प्लेंट्स) में 35% की वृद्धि नहीं होती ।


केवल कानून और डंडे के जोर से सच्चा सुधार नहीं हो सकता । सच्चे और स्थायी सुधार के लिए, बलात्कार जैसे नृशंस अपराधों को रोकने के लिए संयम-शिक्षा पर बल देने की आवश्यकता है । 

इसके लिए संयम-शिक्षा तथा सच्चे सात्त्विक मूल्यों को पुनः स्थापित करना होगा । जो संत- महापुरुष इस कार्य को देश में कर रहे थे उनपर ही षड्यंत्रकारियों ने झूठा आरोप लगवाकर जेल भेज दिया । 

 इससे पता चलता है कि कुछ स्वार्थी राष्ट्र-विरोधी ताकतें कानून की आड़ लेकर भारतीय संस्कृति को नष्ट करने की बुरी मंशा रखती हैं । संत-महापुरुष ही समाज के प्रहरी हैं, हमें उन पर हो रहे इस आघात को रोकना होगा ।

साथ ही पॉक्सो व बलात्कार निरोधक कानूनों की खामियों को दूर करना होगा तभी समाज के साथ न्याय हो पायेगा अन्यथा एक के बाद एक निर्दोष सजा भुगतने के लिए मजबूर होते रहेंगे ।
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Sunday, January 22, 2017

आइये जानते हैं वीर क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस का इतिहास

सुभाष चन्द्र बोस जयंती - 23 जनवरी 

आइये जानते हैं वीर क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस का इतिहास..!!

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िशा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरद चन्द्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
आइये जानते हैं वीर क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस का इतिहास

शिक्षादीक्षा से लेकर आईसीएस तक का सफर..!!

कटक के प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1915 में उन्होंने इण्टरमीडियेट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व संभाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेण्ट में भर्ती के लिये उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आँखें खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिये अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिये उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडियेट की तरह बीए में भी कम नम्बर न आ जायें सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।

पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से चौबीस घण्टे का समय यह सोचने के लिये माँगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाये। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितम्बर 1919 को इंग्लैण्ड चले गये। परीक्षा की तैयारी के लिये लन्दन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु उन्हें प्रवेश मिल गया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। सो उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली।

इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रक्खा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पायेंगे? 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ई०एस० मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशवन्धु चित्तरंजन दास को लिखा। किन्तु अपनी माँ प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि "पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।" सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये।

स्वतन्त्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य..!!

कोलकाता के स्वतन्त्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गांधी से मिले। मुम्बई में गांधी जी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ 20 जुलाई 1921 को गाँधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गाँधी जी ने उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर दासबाबू से मिले।

उन दिनों गाँधी जी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में सहभागी हो गये। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अन्दर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिये कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गये। उन्होंने सुभाष को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाष ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता में सभी रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दिये गये। स्वतन्त्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करने वालों के परिवारजनों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गये। जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाष ने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेण्डेंस लीग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झण्डे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधी जी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की माँग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू को पूर्ण स्वराज की माँग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अन्त में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिये एक साल का वक्त दिया जाये। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की माँग करेगी। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की। इसलिये 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जायेगा।

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गाँधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिये गाँधी जी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गाँधी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो गये।

कारावास!!

अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ।

1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से न केवल सम्बन्ध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया।

5 नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिये यूरोप चले जायें। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी कि जेल अधिकारियों को यह लगने लगा कि शायद वे कारावास में ही न मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी कि सुभाष की कारागृह में मृत्यु हो जाये। इसलिये सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। उसके बाद सुभाष इलाज के लिये डलहौजी चले गये।

1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।

यूरोप प्रवास!!

सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी।

बाद में सुभाष यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाष ने मन्त्रणा की जिसे पटेल-बोस विश्लेषण के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस विश्लेषण में उन दोनों ने गान्धी के नेतृत्व की जमकर निन्दा की। उसके बाद विठ्ठल भाई पटेल जब बीमार हो गये तो सुभाष ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल नहीं बचे, उनका निधन हो गया।

विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी सारी सम्पत्ति सुभाष के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात् उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल ने इस वसीयत को लेकर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जीतने पर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अपने भाई की सारी सम्पत्ति गान्धी के हरिजन सेवा कार्य को भेंट कर दी।

1934 में सुभाष को उनके पिता के मृत्युशय्या पर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हे पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्त्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।

ऑस्ट्रिया में प्रेम विवाह

सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल (अं: Emilie Schenkl) नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु चिकित्सक थे। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में स्वाभाविक प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से विवाह रचा लिया। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, अनिता पौने तीन साल की थी। अनिता अभी जीवित है। उसका नाम अनिता बोस फाफ (अं: Anita Bose Pfaff) है। अपने पिता के परिवार जनों से मिलने अनिता फाफ कभी-कभी भारत भी आती है।

हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्ष पद

1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होना तय हुआ। इस अधिवेशन से पहले गान्धी जी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना। यह कांग्रेस का 51 वाँ अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चन्द्र बोस का स्वागत 51 बैलों द्वारा खींचे हुए रथ में किया गया।

इस अधिवेशन में सुभाष का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजनीतिक व्यक्ति ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सुभाष ने योजना आयोग की स्थापना की। जवाहरलाल नेहरू इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। सुभाष ने बंगलौर में मशहूर वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद की स्थापना भी की।

1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया। सुभाष की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चीनी जनता की सहायता के लिये डॉ॰ द्वारकानाथ कोटनिस के नेतृत्व में चिकित्सकीय दल भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाष ने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया तब कई लोग उन्हे जापान की कठपुतली और फासिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाष न तो जापान की कठपुतली थे और न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।

कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा

1938 में गान्धीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाष को चुना तो था मगर उन्हें सुभाष की कार्यपद्धति पसन्द नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाष चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाये। उन्होंने अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में इस ओर कदम उठाना भी शुरू कर दिया था परन्तु गान्धीजी इससे सहमत नहीं थे।

1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया तब सुभाष चाहते थे कि कोई ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष बनाया जाये जो इस मामले में किसी दबाव के आगे बिल्कुल न झुके। ऐसा किसी दूसरे व्यक्ति के सामने न आने पर सुभाष ने स्वयं कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन गान्धी उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गान्धी ने अध्यक्ष पद के लिये पट्टाभि सीतारमैया को चुना। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गान्धी को खत लिखकर सुभाष को ही अध्यक्ष बनाने की विनती की। प्रफुल्लचन्द्र राय और मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष को ही फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गान्धीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने पर बहुत बरसों बाद कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हुआ।

सब समझते थे कि जब महात्मा गान्धी ने पट्टाभि सीतारमैय्या का साथ दिया हैं तब वे चुनाव आसानी से जीत जायेंगे। लेकिन वास्तव में सुभाष को चुनाव में 1580 मत और सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गान्धीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से चुनाव जीत गये। मगर चुनाव के नतीजे के साथ बात खत्म नहीं हुई। गान्धीजी ने पट्टाभि सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वे सुभाष के तरीकों से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। 

1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार हो गये थे कि उन्हें स्ट्रेचर पर लिटाकर अधिवेशन में लाना पड़ा। गान्धीजी स्वयं भी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे और उनके साथियों ने भी सुभाष को कोई सहयोग नहीं दिया। अधिवेशन के बाद सुभाष ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की लेकिन गान्धीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाष कुछ काम ही न कर पाये। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाष ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना

3 मई 1939 को सुभाष ने कांग्रेस के अन्दर ही फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाष को कांग्रेस से ही निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतन्त्र पार्टी बन गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतन्त्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिये जन जागृति शुरू की।

3 सितम्बर 1939 को मद्रास में सुभाष को ब्रिटेन और जर्मनी में युद्ध छिड़ने की सूचना मिली। उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है उसे अपनी मुक्ति के लिये अभियान तेज कर देना चहिये। 8 सितम्बर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय करने के लिये सुभाष को विशेष आमन्त्रित के रूप में काँग्रेस कार्य समिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर काँग्रेस यह काम नहीं कर सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ़ युद्ध शुरू कर देगा।

अगले ही वर्ष जुलाई में कलकत्ता स्थित हालवेट स्तंभ जो भारत की गुलामी का प्रतीक था सुभाष की यूथ ब्रिगेड ने रातोंरात वह स्तम्भ मिट्टी में मिला दिया। सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। यह एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह सन्देश दिया था कि जैसे उन्होंने यह स्तम्भ धूल में मिला दिया है उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट से ईंट बजा देंगे।

इसके परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार ने सुभाष सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओं को कैद कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिये सुभाष ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालत खराब होते ही सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह भी नहीं चाहती थी कि सुभाष युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिये सरकार ने उन्हें उनके ही घर पर नजरबन्द करके बाहर पुलिस का कड़ा पहरा बिठा दिया।

नजरबन्दी से पलायन

कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) स्थित नेताजी भवन जहाँ से सुभाष चन्द्र बोस वेश बदल कर फरार हुए थे। इस घर में अब नेताजी रिसर्च ब्यूरो स्थापित कर दिया गया है। भवन के बाहर लगे होर्डिंग पर सैनिक कमाण्डर वेष में नेताजी का चित्र साफ दिख रहा है।

नजरबन्दी से निकलने के लिये सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियाँ अकबर शाह मिले। मियाँ अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया।

काबुल में सुभाष दो महीनों तक उत्तमचन्द मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इसमें नाकामयाब रहने पर उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में आरलैण्डो मैजोन्टा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाष काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मास्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।

नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात

बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मन्त्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये।

आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रुचि नहीं थी। उन्होने सुभाष को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।

कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और माईन काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

अन्त में सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एकमात्र अदला-बदली हुई थी। यह जापानी पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह तक पहुँचाकर आयी।

पूर्व एशिया में अभियान

पूर्वी एशिया पहुँचकर सुभाष ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।

जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात् नेताजी ने जापान की संसद (डायट) के सामने भाषण दिया।


21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।

आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।

पूर्वी एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहाँ के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह सन्देश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।"

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने " दिल्ली चलो" का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श प्रस्तुत किया।

6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गान्धीजी को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिये उनका आशीर्वाद भी माँगा। इस प्रकार नेताजी ने ही सर्वप्रथम गान्धीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपने अपमान के बदले उन्हें सम्मानित करने का कार्य किया था।

लापता होना और मृत्यु की खबर

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिये।

23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू (जापानी भाषा: 臺北帝國大學, Taihoku Teikoku Daigaku) हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज़ के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिये 1956 और 1977 में दो बार आयोग नियुक्त किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।

18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।

देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चन्द्र बोस के होने का मामला राज्य सरकार तक गया। परन्तु राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप के योग्य न मानते हुए मामले की फाइल ही बन्द कर दी।

सुनवाई के लिये विशेष पीठ का गठन

कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दे दिया है। यह याचिका सरकारी संगठन इंडियाज स्माइल द्वारा दायर की गयी है। इस याचिका में भारत संघ, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, रॉ, खुफिया विभाग, प्रधानमंत्री के निजी सचिव, रक्षा सचिव, गृह विभाग और पश्चिम बंगाल सरकार सहित कई अन्य लोगों को प्रतिवादी बनाया गया है।

भारत की स्वतन्त्रता पर नेताजी का प्रभाव

हिरोशिमा और नागासाकी के विध्वंस के बाद सारे संदर्भ ही बदल गये। आत्मसमर्पण के उपरान्त जापान चार-पाँच वर्षों तक अमेरिका के पाँवों तले कराहता रहा। यही कारण था कि नेताजी और आजाद हिन्द सेना का रोमहर्षक इतिहास टोकियो के अभिलेखागार में वर्षों तक पड़ा धूल खाता रहा।

नवम्बर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाये गये मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुँचे। अंग्रेजों के द्वारा किए गये विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देनेवाले उस मुकदमे के बाद माताएँ अपने बेटों को ‘सुभाष’ का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर–घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।

आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में सफल नहीं हो सका किन्तु उसका दूरगामी परिणाम हुआ। सन् 1946 के नौसेना विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतन्त्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।

आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व-इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता जहाँ तीस-पैंतीस हजार युद्धबन्दियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।

जहाँ स्वतन्त्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतन्त्रता के उपरान्त देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते रहे। स्वातन्त्र्यवीर सावरकर ने स्वतन्त्रता के उपरान्त देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन किया था। यह एक क्रान्तिवीर द्वारा दूसरे क्रान्ति वीर को दी गयी अभूतपूर्व सलामी थी।