Wednesday, December 7, 2016

संत संस्कारों की रीढ़ की हड्डी हैं भारत में संतों की हमेशा से अहम भूमिका रही है

हमारी संस्कृति को अफगानिस्तान तक ले जाना है : अखंड भारत मोर्चा


अंखड भारत मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष #संदीप आहूजा जी ने एक निजी चैनल में अपना इंटरव्यू देते हुए कहा कि किसी भी देश को समाप्त करना हो तो उसकी संस्कृति को नष्ट कर दो, उसकी सभ्यता को नष्ट कर दो,  पिताजी को #कुत्ता कहना शुरू कर दो । तो वहाँ का जो #जनमानस है वो इतना #Dim #Reorientation होगा कि वो अपनी #संस्कृति को भूल जाएगा ।

उन्होंने आगे बताया कि #अखंड_भारत_मोर्चा हमारे #संगठन का नाम है । लेकिन उसका मूल उद्देश्य यही है कि #अफगानिस्तान जहाँ #सम्राट #अशोक ने अपना #ध्वज गाढ़ लिया था । अपनी #संस्कृति वहाँ तक लेकर गए थे, ऐसा एक बार नहीं हुआ था । #हरि सिंह नलवा के समय भी वे पहुँच गए थे, फिर से वहाँ तक हमारी संस्कृति पहुँचाने का उद्देश्य है ।

भारतीय संस्कृति मिटाने में लगे है..!!

हिन्दूओं की #चोटी हटवा दी #तिलक हटवा दिया, अब #संस्कृति हटाने की बात आई है..!! 

संस्कृति को हटाने के लिए धीरे-धीरे हमें पॉइजन दिया जा रहा है । हमारे इतने समृद्ध देश के #बुद्धिमान, जहाँ #शून्य की खोज हुई हो, जिन्होंने #गणित के अंदर #त्रिकोण का #अविष्कार किया हो, उस #बुद्धिजीवी वर्ग को कहा कि #बेकार हो ! 
निट्ठले हो !!
 क्या #चोटी रख के घूमते हो?
 क्या #धोती पहनकर #तिलक लगाते हो?

 ऐसा कर-कर के #Dim #reorientation करके जनता की आँखों पर अपने हीन संस्कारों का #पर्दा डाल दिया । पर अब धीरे-धीरे #लोगो में #जागरूकता आ रही है ।

संत संस्कारों की रीढ़ की हड्डी है 

संत देश की रीढ़ की हड्डी है!!

भारत देश में संत की अहम भूमिका है। #संत #संस्कार की रीढ़ की #हड्डी हैं। जिसकी #शिलाएँ समाज में फैली हुई होती हैं। #संस्कार समाज तक संतो के माध्यम से ही पहुँचता है । 

उन संस्कारों को फैलने से रोकने के लिए संतों को बदनाम करते हैं । जैसे अभी संत #आसारामजी #बापू को बदनाम किया जा रहा है । अभी मैं वही पढ़ रहा था ।
#डाॅक्टर में उनका #नेगिटव आया है, लेकिन सरकार में बैठे हुए #मद में डूबे हुए लोग #संतो को दबाने का प्रयास कर रहे हैं । यही संत आसारामजी बापू के साथ हुआ, यही अन्य #संतो के साथ हुआ ।


संत आसारामजी बापू को झूठे केस में फंसाया गया!!

संदीप आहूजा जी ने बताया कि ये बहुत ही #आसान काम हो गया है।आज की #कानून #व्यवस्था में।
16 साल की लड़की आपको हाथ लगाके छेड़ जाए और वो ही उल्टा कह दे तो आपके ऊपर #POCSO लग जाएगी फिर आप #सफाई देते रहिए, मैंने नहीं #छेड़ा था, हाथ नहीं लगाया था, या बेटी समझ कर लगाया था या नहीं लगाया था ।
आप कुछ भी बोलते रहो आपकी कोई नही सुनेगा ।


बापू आसारामजी के ऊपर आरोप लगाने वाली लड़की की माँ के बारे में उन्होंने बोला कि अगर आश्रम में ऐसा ही चल रहा था तो #माँ अपनी #बेटी को #आश्रम में लेकर क्यों जाती थी?
उस समय माँ को सबसे पहले मालूम होता है, बेटी के साथ सही हो रहा है या गलत ।


लड़की उत्तर प्रदेश की है, पढ़ती है मध्य प्रदेश में,घटना बताती है राजस्थान की और FIR 5 दिन के बाद रात को 2:30 बजे करवाती है वो भी दिल्ली में, उसको लेकर संदीप जी ने कहा कि
जोधपुर की घटना को दिल्ली में आकर जीरो FIR लिखवा रही हो, 
अरे..!! आप क्या मजाक कर रहे हो #कानून का ??

जीरो #FIR है। #जीरो #FIR की वेल्यु तब बनती है, जब उसके पीछे #एविडेन्स होता है। #कानून के पास कोई #एविडेन्स है ही नही ।
वास्तव में ये #सत्ता और #संत का #संघर्ष है । #सत्ता द्वारा पैदा किये हुए #सबूत हैं। इसलिए #संत आसारामजी बापू जेल में हैं ।

समाज देख रहा है । #समाज ने संत आसारामजी बापू के लिए जंतर-मंतर में संघर्ष भी किया लेकिन #सत्ता के अंदर बैठे हुए लोग और जाँच #एजेंसियां जब तक क्लीनचिट नही देती तब तक संत भी #जेल में हैं। 

मैंने संत आसारामजी बापू के केस का मेडिकल #रिपोर्ट पढ़ा, उसमें नेगीटिव है (बापू आसारामजी के खिलाफ मेडिकल में कोई प्रूफ नही है लड़की को खरोंच तक नही आई है ) और उस समय के #पुलिस अधिकारी ने भी कहा है कि लड़की के साथ फिजिकल टच हुआ ही नहीं है...!

गौरतलब है कि बापू आसारामजी 39 महीनों से जोधपुर जेल में बंद हैं, लेकिन उन पर अभी तक एक भी आरोप सिद्ध नही हुआ है । केवल ट्रायल ही चल रहा है।

उनकी रिहाई के लिए कई हिन्दू संगठन माँग उठा रहे हैं, संगठनों का कहना है कि बापू आसारामजी के ऊपर सुनियोजित षड़यंत्र किया गया है इसलिये जमानत तक नही दी जा रही है ।

और अब तो आम जनता भी सोशल मीडिया पर उनकी रिहाई और उनके साथ हो रहे अन्याय पर आवाज उठा रही है ।

अब देखना ये है कि सरकार कब हिन्दू संतों को न्याय दिलाने के लिए ठोस कदम उठाती है!!

Tuesday, December 6, 2016

अयोध्या,श्री रामन्दिर का इतिहास और हिंदुओं के बलिदान की गाथा को पढ़कर आप भी रो पड़ेंगे !!



ई. 1526 में जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी।

महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्याति प्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। 

ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना ।

Ayodhya, Mr. Ramandir history and reading the story of the sacrifice of Hindus also will weep !!

अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया कि यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिंदुस्तान में स्थायी हो जायेगा। 

धीरे-धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए । सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत
मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥
और मीरबाँकी खां के माध्यम से
बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस
का कार्यक्रम बनाया। 

बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम
शिष्यों की करतूत देखकर बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने
रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित की और खुद हिमालय की ओर तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के
अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए। 

जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारों पुजारियों के सर काट दिए गए।
जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय
भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे,अयोध्या पहुँचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर
मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में
रामभक्तों को शामिल कर एक लाख चौहत्तर हजार लोगों के साथ बाबर की सेना के 4 लाख 50 हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।

रामभक्तों ने सौगंध ले रखी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे जब तक प्राण हैं तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे।


रामभक्त वीरता के साथ लड़े 70 दिनों तक घोर संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत सभी 1 लाख 74 हजार रामभक्त मारे गए। 

श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्लेआम के
बाद ई. 1528 में मीरबांकी ने तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया ।

मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण
हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल किया गया । नींव में लखौरी इंटों के साथ इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है कि एक लाख चौहतर हजार
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान में सफल हुआ और उसके बाद
जन्मभूमि के चारों और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर
दिया गया..


इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में
लिखता है कि " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नींव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी। "


उस समय अयोध्या से 6 मील की दूरी पर सनेथू नाम के एक गाँव के
पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित किया॥


देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से
कहा कि भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते
हैं । आपके पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्त कब्रों से काट रहे हैं और खोद रहे हैं ।
इस परिस्थिति में हमारे मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा।

देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर 10 हजार
क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए। दूर-दूर के गांवों से लोगों ने समूहों में इकठ्ठा होकर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर
जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार 5 दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन
पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन
पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने
पगड़ी से खोपड़ी को बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीरगति को प्राप्त हुए ।

जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। देवीदीन पाण्डेय के
वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर अब भी मौजूद है।

पाण्डेय जी की मृत्यु के 15 दिन बाद हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने सिर्फ 25 हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से
सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया ।

10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।


रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह
की पत्नी थी।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार
नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने
रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने 24 हजार सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के साथ , हुमायूँ के समय में कुल 10 हमले जन्मभूमि के उद्धार के लिए किये। 10वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार
हो गया।

लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर
भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और
रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी।


रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद युद्ध
का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कर रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत
सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के उद्धारार्थ 20 बार आक्रमण किया । इन 20 हमलों में कम से
कम 15 बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के
लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फौज आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन हो जाती थी ।

जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे।
उस समय का मुगल शासक अकबर था। शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी । अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर 3 फीट का एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया । लगातार युद्ध करते रहने के
कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य
गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु हो गयी ।

इस प्रकार बार-बार के आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास कि अकबर की इस
कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।


यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा। फिर औरंगजेब के हाथ
सत्ता आई,वो कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या में
मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलाकर यहाँ के सभी प्रमुख मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला। औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किया । 

इन आक्रमणों में अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमें सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे वीर ये जानते हुए भी कि उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं हैं ,अपने जीवन के
आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।


ठाकुर गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय में
मौजूद हैं। आज भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय
सिर पर पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते, उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी कि जब
तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।


1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक जबरदस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक
सेना थी जो हर विद्या में निपुण थी इसे
चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे ।

 जब जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना भी मिल गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया ।


चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से
मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित मंदिर की रक्षा हो गयी ।
जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य
सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर भेजा और साथ
में ये आदेश दिया कि अब की बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस
आना है ,यह समय सन् 1680 का था ।


बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के
गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध में सहयोग के लिए पत्र के
माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल
अयोध्या आ गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह है 
जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह
की स्मृति में सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है।
बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के
गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े ।इन
वीरों कें सुनियोजित हमलों से
मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन अली भी युद्ध मे मारा गया।

 औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर
हमला करने की हिम्मत नहीं की।
औरंगजेब ने सन् 1664 में एक बार फिर श्री राम जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप
नाम का कुंआ था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमे फैंककर चारों ओर चारदीवारी उठा कर उसे घेर
दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध है और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।


शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत दिनों तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप में वहाँ स्थित था ।
औरंगजेब के क्रूर अत्याचारों की मारी हिन्दू जनता अब उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से अक्षत,पुष्प और जल चढ़ाती रहती थी ।

नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ
अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में
गिरती रहीं।

लखनऊ गजेटियर में कर्नल हंट लिखता है कि “ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने
की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।

“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62”
नसीरुद्दीन हैदर के समय में मकरही के
राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप में लाने के लिए हिंदुओं ने तीन आक्रमण किये जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये।

परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर
नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान में हिन्दुओं
और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया।

 इस संग्राम में भीती, हंसवर, मकरही, खजुरहट, दीयरा,अमेठी के
राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे।

 हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर
चिमटाधारी साधुओं की सेना आ
मिली और इस युद्ध में शाही सेना के चिथड़े उड़ गये और उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।


मगर हर बार की तरह कुछ दिनों के बाद विशाल शाही सेना ने पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार गिराया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा।
नवाब वाजिदअली शाह के समय में पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के
उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा कि
"इस संग्राम में बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। 

क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर बर्बाद कर डाली । मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से
मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई
हानि नहीं पहुँचायी।

अयोध्या में प्रलय मचा हुआ था ।
इतिहासकार कनिंघम लिखता है कि ये
अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था।
हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और
औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक
छोटा सा मंदिर बनवा लिया । जिसमें
पुनः रामलला की स्थापना की गयी।
कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी।


सन 1857 की क्रांति में बहादुर
शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के
साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ में दोनों को एक
साथ अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया ।


जब अंग्रेजों ने ये देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक
स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होंने इस पेड़ को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया...
इस प्रकार अंग्रेजों की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार
का यह एकमात्र प्रयास विफल हो गया ।


अन्तिम बलिदान ...
30 अक्टूबर 1990 को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम
सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गई
अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया।
लेकिन 2 नवम्बर 1990
को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दी।

 सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार
सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था।
4 अप्रैल 1991 को कारसेवकों के हत्यारे,
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस्तीफा दिया।
लाखों राम भक्त 6 दिसम्बर 1992
को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक
मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया।


परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं नपुंसकता के
कारण आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे
हुए तम्बू में विराजमान हैं।


जिस जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त पानी की तरह बहाया। आज वही हिन्दू बेशर्मी से इसे "एक विवादित स्थल" कहता है।


सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने आज भी जन्मभूमि पर
अपना दावा नहीं छोड़ा है। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने देना चाहते हैं ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें
नीचा दिखाया जा सके।


जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन
नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस
की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन मानते हैं। और मूर्ख हिन्दू
समझता है कि राम जन्मभूमि राजनीतिज्ञों और मुकदमों के कारण उलझा हुआ है।

अभी भी हिन्दू नही जगा तो रामन्दिर बन पाना मुश्किल लग रहा है ।
हिन्दू बटा है इसके कारण ही आज रामन्दिर नही बन पा रहा है ।
अभी हिंदुओं को एकजुट होकर रामन्दिर के लिए आगे आना होगा ।

जय श्री राम!!

Monday, December 5, 2016

6 दिसम्बर - शौर्य दिवस !!


बाबरी मस्जिद विध्वंस का 6 दिसंबर को हर साल हिन्दू शौर्य दिवस मानते हैं।
भारत में विधर्मी आक्रमणकारियों ने बड़ी संख्या में हिन्दू मन्दिरों का विध्वंस किया। स्वतन्त्रता के बाद भी सरकार ने मुस्लिम वोटों के लालच में मस्जिदों, मजारों आदि को बना रहने दिया।
Azaa-Bharat-6-december-shaury-Diwas
इनमें से श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर (अयोध्या), श्रीकृष्ण जन्मभूमि (मथुरा) और काशी विश्वनाथ मन्दिर के सीने पर बनी मस्जिदें सदा से हिन्दुओं को उद्वेलित करती रही हैं। इनमें से श्रीराम मन्दिर के लिए विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष स्वर्गीय श्री अशोक सिंघल की अध्यक्षता और शिवसेना के बाला साहब की अध्यक्षता में देशव्यापी आन्दोलन किया गया, जिससे 6 दिसम्बर, 1992 को वह बाबरी ढाँचा धराशायी हो गया।
श्रीराम मन्दिर को बाबर के आदेश से उसके सेनापति मीर बाकी ने 1528 ई. में गिराकर वहाँ एक मस्जिद बना दी थी । इसके बाद से हिन्दू समाज एक दिन भी चुप नहीं बैठा। वह लगातार इस स्थान को पाने के लिए संघर्ष करता रहा । 23 दिसम्बर,1949 को हिन्दुओं ने वहाँ रामलला की मूर्ति स्थापित कर पूजन एवं अखण्ड कीर्तन शुरू कर दिया।
'विश्व हिन्दू परिषद्' द्वारा इस विषय को अपने हाथ में लेने से पूर्व तक 76 हमले हिन्दुओं ने किये; जिसमें देश के लाखों हिन्दू नर नारियों का बलिदान हुआ; पर पूर्ण सफलता उन्हें कभी नहीं मिल पायी।
विश्व हिन्दू परिषद ने लोकतान्त्रिक रीति से जनजागृति के लिए श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन कर 1984 में श्री रामजानकी रथयात्रा निकाली, जो सीतामढ़ी से प्रारम्भ होकर अयोध्या पहुँची।
इसके बाद हिन्दू नेताओं ने शासन से कहा कि श्री रामजन्मभूमि मन्दिर पर लगे अवैध ताले को खोला जाए। न्यायालय के आदेश से 1 फरवरी 1986 को ताला खुल गया। 
इसके बाद वहाँ भव्य मन्दिर बनाने के लिए 1989 में देश भर से श्रीराम शिलाओं को पूजित कर अयोध्या लाया गया और बड़ी धूमधाम से 9 नवम्बर, 1989 को श्रीराम मन्दिर का शिलान्यास कर दिया गया। जनता के दबाव के आगे प्रदेश और केन्द्र शासन को झुकना पड़ा।
पर मन्दिर निर्माण तब तक सम्भव नहीं था, जब तक वहाँ खड़ा ढाँचा न हटे। हिन्दू नेताओं ने कहा कि यदि मुसलमानों को इस ढाँचे से मोह है, तो वैज्ञानिक विधि से इसे स्थानान्तरित कर दिया जाए; पर शासन मुस्लिम वोटों के लालच से बँधा था। वह हर बार न्यायालय की दुहाई देता रहा। विहिप शिवसेना आदि हिन्दू कार्यकर्ताओं का तर्क था कि आस्था के विषय का निर्णय न्यायालय नहीं कर सकता। शासन की हठधर्मी देखकर हिन्दू समाज ने आन्दोलन और तीव्र कर दिया।
इसके अन्तर्गत 1990 में वहाँ कारसेवा का निर्णय किया गया। तब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी। उन्होंने घोषणा कर दी कि बाबरी परिसर में एक परिन्दा तक पर नहीं मार सकता । पर हिन्दू युवकों ने शौर्य दिखाते हुए 29 अक्तूबर को गुम्बदों पर भगवा फहरा दिया। बौखला कर दो नवम्बर को मुलायम सिंह ने गोली चलवा दी, जिसमें कोलकाता के दो सगे भाई राम और शरद कोठारी सहित सैकड़ों कारसेवकों का बलिदान हुआ।
इसके बाद प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी।केन्द्र की कांग्रेस सरकार के इस आश्वासन पर कि नवंबर में न्यायालय का निर्णय आ जाएगा एक बार फिर गीता जयंती के शुभ दिन (उस वर्ष 6 दिसम्बर, 1992 ) को कारसेवा की तिथि निश्चित की गयी।परन्तु जानबूझ कर सब सुनवाई पूरी होने के बाद भी निर्णय की तिथि आगे से आगे बढ़ाकर 6 दिसंबर के बाद की कर दी गई ।
विहिप की योजना तो तब भी केन्द्र शासन पर दबाव बनाने की ही थी । पर युवक आक्रोशित हो उठे। उन्होंने वहाँ लगी तार बाड़ के खम्भों से प्रहार कर बाबरी ढाँचे के तीनों गुम्बद गिरा दिये। इसके बाद विधिवत वहाँ श्री रामलला को भी विराजित कर दिया गया।
मगर जरा सोचें, इसके पीछे कितने बलिदान हुए, कितनी माताओं ने अपने पुत्र खोये , कितनी पत्नियों ने अपने सुहाग खोये!
क्या बीती होगी उस बाप पर, जब उसने अपने दो-दो बेटों की गोलियों से छलनी हुई लाश को देखा होगा!
ये सब किया तत्कालीन केंद्र की कांग्रेस और उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने!
रामभक्तों को गोलियो से छलनी कर उनके शरीर में बालू के बोरे बांध कर उनकी लाश सरयू मे फेंक दी गयी ।
सोचिए,क्या बीती होगी उस परिवार पर जब उन्होंने अपनों की सड़ी-गली और जानवरो से खाई हुई लाशें यमुना से कई हफ्तों बाद निकाली होगी !
कारसेवकों को हेलीकाप्टर से चुन चुन कर निशाना बनाया गया और गोली आँख में या सिर में मारी गयी ।
क्यों...???
क्योंकि हिन्दू सहनशील हैं!
अयोध्या जो बाबर की औलादों के चंगुल में थी,लाखों हिन्दू पुरुषों और हजारों नारियों ने बलिदान देकर उसे मुक्त कराया ।
अमर बलिदानी कारसेवक गोली लगने के बाद मरते-मरते भी “जय श्री राम” बोलते रहें ।
इस प्रकार वह बाबरी कलंक नष्ट हुआ पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने सारी जमीन अधिग्रहीत कर ली ।
अब मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है । पूर्ण विश्वास है कि वर्तमान केंद्र सरकार भव्य मंदिर निर्माण का मार्ग शीघ्र प्रशस्त करेगी ।
जय श्री राम!!

Sunday, December 4, 2016

महान क्रांतिकारी महर्षि योगी अरविन्द घोष पुण्यतिथि : 5 दिसम्बर

क्रांतिकारी महर्षि योगी अरविन्द घोष पुण्यतिथि : 5 दिसम्बर
अरविन्द घोष एक महान योगी एवं दार्शनिक थे। क्रांतिकारी महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता (बंगाल की धरती) में हुआ।  उनके पिता के.डी. घोष एक डॉक्टर तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे। पिता अंग्रेजों के प्रशंसक लेकिन उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गए।
इन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया, बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविन्द देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे।   उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।  
किन्तु बाद में यह एक योगी बन गये और इन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है और उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं। यह कवि भी थे और गुरु भी।
प्रारम्भिक शिक्षा
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अरविन्द के पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र 7 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। उन्होंने केवल 18 वर्ष की आयु में ही आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटैलियन भाषाओं में भी निपुणता प्राप्त की थी।
युवावस्था
देशभक्ति से प्रेरित इस युवा ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली। इनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अत: उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बड़ोदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यता पूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया।
1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच अध्यापक और उपाचार्य रहने तक रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रांति की दीक्षा दी थी।
वे निजी रुपये-पैसे का हिसाब नहीं रखते थे परन्तु राजस्व विभाग में कार्य करते समय उन्होंने जो विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना बनायी उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य देशी रियासतों में अन्यतम बन गया था। महाराजा मुम्बई की वार्षिक औद्योगिक प्रदर्शनी के उद्घाटन हेतु आमन्त्रित किये जाने लगे थे।
बड़ौदा से कोलकाता आने के बाद महर्षि अरविन्द आजादी के आंदोलन में उतरे। कोलकाता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया।  उन्होंने 1902 में उनशीलन समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया।  
लार्ड कर्जन के बंग-भंग की योजना रखने पर सारा देश तिलमिला उठा।
सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया।   जनता को जागृत करने के लिए अरविन्द ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा 'वंदे मातरम्' में प्रकाशित लेखों के द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।   
बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमे सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल ला कॉलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। अरविन्द कलकत्ता आये तो राजा सुबोध मलिक की अट्टालिका में ठहराये गये। पर जन-साधारण को मिलने में संकोच होता था। अत: वे सभी को विस्मित करते हुए 19/8 छक्कू खानसामा गली में आ गये। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका वन्देमातरम् का प्रकाशन प्रारम्भ किया।
अरविन्द का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी ,अत:1908-09 में उन पर अलीपुर बम कांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला। जिसके फलस्वरूप 2 मई 1908 को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे 'अलीपुर षडयन्त्र केस' के नाम से जानते है।
अरविन्द ने कहा था चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रूकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं है कि 15 अगस्त को भारत को आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है।
उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया।| अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस षड़यन्त्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसले 6 मई 1909 को जनता के सामने आये।
30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी वहाँ अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ जो इतिहास में उत्तरपाड़ा अभिभाषण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस अभिभाषण में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास-अनुभूति का विशद विवेचन करते हुए कहा था कि जब मुझे आप लोगों के द्वारा आपकी सभा में कुछ कहने के लिए कहा गया तो मैं आज एक विषय हिन्दू धर्मं पर कहूँगा। मुझे नहीं पता कि मैं अपना आशय पूर्ण कर पाऊँगा या नहीं। जब मैं यहाँ बैठा था तो मेरे मन में आया कि मुझे आपसे बात करनी चाहिए। एक शब्द पूरे भारत से कहना चाहिये। यही शब्द मुझसे सबसे पहले जेल में कहा गया और अब यह आपको कहने के लिये मैं जेल से बाहर आया हूँ।एक साल हो गया है मुझे यहाँ आए हुए। पिछली बार आया था तो यहाँ राष्ट्रीयता के बड़े-बड़े प्रवर्तक मेरे साथ बैठे थे। यह तो वह सब था जो एकान्त से बाहर आया जिसे ईश्वर ने भेजा था ताकि जेल के एकान्त में वह ईश्वर के शब्दों को सुन सके। यह तो वह ईश्वर ही था जिसके कारण आप यहाँ हजारों की संख्या में आये। अब वह बहुत दूर है हजारों मील दूर ।
जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया। जेल में अरविन्द का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठी में ज्यादा   से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविन्द जब अलीपुर जेल में थे तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वह क्रांतिकारी आंदोलन को छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।  जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। अरविन्द पांडिचेरी चले गए। वहीं  पर रहते हुए अरविन्द ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है।  सन् 1914 में मीरा नामक फ्रांसीसी महिला की पांडिचेरी में अरविन्द से पहली बार मुलाकात हुई। जिन्हें बाद में अरविन्द ने अपने आश्रम के संचालन का पूरा भार सौंप दिया। अरविन्द और उनके सभी अनुयायी उन्हें आदर के साथ ‘मदर’ कहकर पुकारने लगे।  अरविन्द एक महान योगी और दार्शनिक थे। उनका पूरे विश्व में दर्शनशास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है। उन्होंने जहां वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों पर टीका लिखी, वहीं योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। खासकर उन्होंने डार्विन जैसे जीव वैज्ञानिकों के सिद्धांत से आगे चेतना के विकास की एक कहानी लिखी और समझाया कि किस तरह धरती पर जीवन का विकास हुआ। उनकी प्रमुख कृतियां लेटर्स ऑन योगा, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, फ्यूचर पोयट्री और द मदर हैं।
एक बार किसी कार्यकर्ता ने उनसे पूछा : ‘‘गांधीजी तो स्वतंत्रता हेतु इतना कार्य कर रहे हैं और आप यहाँ एकांत में योग-साधना कर रहे हैं ! आप गांधीजी के साथ मिलकर स्वतंत्रता में सहयोग क्यों नहीं देते हैं ?’’ 
योगी अरविंद ने बड़ा ही सारभूत उत्तर दिया : ‘‘यह जरूरी नहीं कि प्रत्यक्षरूप से ही सभी कार्य होते हों । हम बाह्यरूप से कुछ न करते हुए भी दिखें फिर भी भीतर बैठकर ऐसा कुछ कर रहे हैं कि भारत शीघ्र ही स्वतंत्र होगा । भगवद्विश्रांति व मंत्रशक्ति सब सामर्थ्यों का मूल है ।’’ 
और इसी परमात्म-विश्रांति व मंत्र-विज्ञान का आश्रय लेकर योगी अरविंद ने देश को स्वतंत्र कराने में प्रत्यक्ष के साथ-साथ सूक्ष्मरूप से भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी । 
मंत्र-विज्ञान भारत की महान संस्कृति की बहुमूल्य धरोहर है । मंत्रों में भौतिक व आध्यात्मिक शक्तियाँ विकसित करने का अलौकिक सामर्थ्य होता है ।
 
महर्षि अरविन्द का देहांत 5 दिसंबर 1950 को हुआ। बताया जाता है कि निधन के बाद चार दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया और अंतत: 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई।

Saturday, December 3, 2016

पानीपत विस्फाेट मामले में आरोपी आतंकी अब्दुल करीम टुंडा बरी !!


पानीपत : खूंखार आतंकी सैयद अब्दुल करीम टुंडा को सबूतों और गवाहों के अभाव में पानीपत बस स्टैंड धमाका केस में जिला न्यायालय ने बरी कर दिया है।
टुंडा, लश्कर ए तैयबा जैसे आतंकी संगठन से जुड़ा रहा है और उस पर भारत में 40 से ज्यादा बम धमाके करने के आरोप हैं।
पानीपत में 1 फरवरी 1997 को बस स्टैंड के पास एक निजी बस में धमाका हुआ था। इस धमाके में लगभग 13 लोग बुरी तरह से घायल हो गए थे। इसमें से एक की मृत्यु हो गई थी। इस विस्फाेट केस में अब्दुल करीम टुंडा को आरोपी बनाया गया था।
अब्दुल करीम टुंडा कैप्सूल बम बनाने में माहिर है।
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बताया जाता है कि बांग्लादेश में बम बनाने के दौरान विस्फाेट हो गया जिसमें उसका बायां हाथ उड़ गया। वह देसी तकनीक से बम बनाना सिखाता था। लश्कर ए तैयबा जैसे आतंकी संगठनों में उसकी भारी डिमांड थी। वह 1985 में आईएसआई से ट्रेनिंग ले चुका था।
दिल्ली,पानीपत,सोनीपत,लुधियाना,कानपुर और वाराणसी में हुए कई बम ब्लास्ट में टुंडा आरोपी था।
26/11 मुंबई अटैक के बाद भारत ने जिन 20 आतंकियों को सौंपने की मांग पाकिस्तान से की थी,उनमें टुंडा का भी नाम शामिल था।
पूछताछ में उसने आईएसआई और लश्कर से लिंक होने की बात भी कबूली थी। वहीं अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम और हाफिज सईद जैसे देश के दुश्मनों का भी करीबी बताया जाता है।
मार्च 2016 में दिल्ली में 4 मामलों में अब्दुल करीम टुंडा को बरी कर दिया गया था ।
दिल्ली पुलिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक टुंडा की 3 बीवियां जरीना,मुमताज और आसमा 7 बच्चों के साथ लाहौर में रहती हैं। उसके पुत्र लाहौर और कराची में उसका धंधा संभालते हैं।
जांचकर्ताओं के मुताबिक टुंडा ने उन्हें बताया कि उसकी दूसरी बीवी मुमताज से उसका तीसरा पुत्र अब्दुल वारिस भारत में एक आतंकवादी घटना में शामिल था। जम्मू-कश्मीर पुलिस ने उसे एक बार गिरफ्तार भी किया था।
2013 में नेपाल बॉर्डर से गिरफ्तारी के बाद टुंडा ने दावा किया था कि वारिस भी लश्कर-ए-तैयबा का एक सक्रिय सदस्य था। उसने एक भारतीय जेल में 8 वर्ष की सजा काटी और उसके बाद पाकिस्तान लौटा।
अब जनता के मन में टुंडा की बरी को लेकर एक प्रश्न बार-बार उठ रहा है कि टुंडा के खिलाफ इतने सबूत होने के बाद भी उसे बरी किया जाता है लेकिन बिना सबूत 2008 से जेल में बन्द साध्वी प्रज्ञा को अभी तक बरी क्यों नही किया गया?
ऐसे ही 2010 से जेल में बंद स्वामी असीमानन्द को भी अभी तक बरी क्यों नहीं किया गया ?
क्या हिन्दू होना गुनाह है...???
आपको बता दें कि एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा को क्लीन चिट भी दे दी है,उसके बावजूद भी जमानत तक नही होना बड़ा आश्चर्य है!!!
जब कि साध्वी प्रज्ञा केंसर से पीड़ित हैं उनका चलना, फिरना, उठना, बैठना भी मुश्किल हो रहा है  फिर भी ईलाज के लिए भी जमानत नहीं देना कितना बड़ा अन्याय हैं!
स्वामी असीमानंद ने भी ईसाई धर्मान्तरण पर रोक लगाई थी इसलिए उनको टारगेट बनाकर जेल भेज दिया गया था ।
जॉइंट इंटेलीजेंस कमेटी के पूर्व प्रमुख और पूर्व उपराष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डॉ. एस डी प्रधान ने देश में भगवा आतंक की थ्योरी को लेकर कई सनसनीखेज खुलासे किए हैं।
जिसमे उन्होंने बताया है कि साध्वी प्रज्ञा और स्वामी असीमानंद का ब्लास्ट में नाम ही नही था और ब्लास्ट पाकिस्तान द्वारा ही करवाया गया था । इसका पुख्ता सबूत होने पर भी चिंदमर ने राजनीतिक फायदे के लिए साध्वी प्रज्ञा और स्वामी असीमानन्द जैसे हिंदुत्व निष्ठों को जेल भेजा गया है।
अब बड़ा सवाल यह है कि टुंडा के खिलाफ इतने अहम सबूत होने पर भी वह बरी हो जाता है लेकिन इन हिन्दू संतों के खिलाफ सबूत नही होने पर भी जेल में रहते है तो क्या हिंदुत्व निष्ठ होना गुनाह है?
ऐसे ही संत आसारामजी बापू  को भी क्लीन चिट मिल चुकी है लेकिन उनको भी अभीतक जमानत तक नही मिल पा रही है ऐसे ही श्री धनंजय देसाई को भी बिना सबूत जेल में रखा हुआ है ।
हिन्दूवादी सरकार आने पर भी इन हिंदुत्व निष्ठों को जमानत तक नही मिलना और खूंखार आतंकी टुंडा बरी हो जाना, कितना बड़ा आश्चर्य है ।
तरुण तेजपाल, सलमान खान, जय ललिता, लालू प्रसाद यादव आदि भी अपराध सिद्ध होने पर भी बरी हो जाते है तो इन निर्दोष हिंदुत्व में निष्ठा रखने वालों को जमानत क्यों नही मिल रही है...???
निर्दोष हिन्दू संतों को कब मिलेगा न्याय???
"क्या देर से न्याय मिलना अन्याय का ही रूप नहीं ?"
सोचो हिन्दू !!!

Friday, December 2, 2016

एनजीटी(NGT) ने कार्यवाही में हिंदी पर लगाया प्रतिबंध : कहा - सुनवाई में केवल अंग्रेजी भाषा ही मान्य !!

एनजीटी(NGT) ने कार्यवाही में हिंदी पर लगाया प्रतिबंध :
कहा - सुनवाई में केवल अंग्रेजी भाषा ही मान्य !!
एनजीटी एक बार फिर से चर्चा में आ गया है पहले श्री श्री पर जुर्माना लगाने पर काफी चर्चा में आया था , अब हिंदी की याचिका पर रोक लगाने से फिर से चर्चा में आ गया है ।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने अपनी कार्यवाही के दौरान हिंदी पर प्रतिबंध लगाते हुए साफ किया है कि वह वादी जो उनके समक्ष व्यक्तिगत रूप से पेश होते हैं वह अपने दस्तावेज केवल अंग्रेजी में ही प्रस्तुत करें।
हरित पैनल ने कहा कि 2011 एनजीटी (चलन एवं प्रकिया) नियमों के नियम 33 के अनुसार अधिकरण की कार्यवाही केवल अंग्रेजी में ही होनी चाहिए।
अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच के राष्ट्रीय महामंत्री श्री मुकेश जैन की वह याचिकाएं जिसके अंग्रेजी में न होने के कारण उन्हें एनजीटी ने अस्वीकार कर दिया था, उन पर पुनर्विचार करने के लिए दायर की गई समीक्षा याचिका की सुनवाई के दौरान यह स्पष्टीकरण दिया गया है।

एनजीटी(NGT) ने कार्यवाही में हिंदी पर लगाया प्रतिबंध : कहा - सुनवाई में केवल अंग्रेजी भाषा ही मान्य !!

न्यायाधीश यूडी साल्वी की अध्यक्षतावाली बेंच ने कहा, ‘‘दायर की गई याचिका में याचिकाकर्ता को यह भम्र था कि हिंदी के राष्ट्रीय भाषा होने के चलते अधिकरण हिंदी की याचिकाओं पर भी सुनवाई करेगा।
हालांकि अब यह भ्रम दूर कर दिया गया है और उन्हें समझ में आ गया है कि 2011 एनजीटी (चलन एवं प्रकिया) नियमों के नियम 33 के अनुसार एनजीटी के काम केवल अंग्रेजी में ही होंगे ।’’
उन्होंने कहा कि, ‘‘इन याचिकाओं और रिकार्डो पर विचार करते हुए, जिनके वास्तविक अंग्रेजी संस्करण 24 सितंबर 2015 को दायर किए गए थे, हम उन याचिकाओं को स्वीकार करते हैं और उन्हें फाइल में बहाल करते हैं।
हालांकि वे सभी हिंदी याचिकाएं जो अपने अंग्रेजी अनुवाद के बिना दायर की गई थी, उन्हें अस्वीकार किया जाता है ।’’
आखिर क्या था मामला...???
दारा सेना के महामंत्री मुकेश जैन
द्वारा हिन्दी में दायर याचिका संख्या 195ध्2016 जिसमें दिल्ली सरकार की सम विषम वाहन योजना को रद्द करने की मांग राष्ट्रीय हरित अधिकरण से की गयी थी,क्योंकि सम विषम योजना में करोड़ों रुपये बर्बाद करने के बाद भी वायु प्रदूषण में कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि इस योजना के कारण परेशानी ही झेलनी पड़ रही है।
किन्तु हरित अधिकरण के न्यायधीशों सर्व श्री एम.एस नाम्बियार और विक्रम सिंह साजवान ने इस याचिका का अंग्रेजी अनुवाद देने का याचिकाकर्ता श्री मुकेश जैन को आदेश दिया।
अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच !!
इस मामले में याचिका कर्ता अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच के महामंत्री श्री मुकेश जैन ने कहा कि हरित अधिकरण में राजभाषा हिन्दी को लगातार प्रताड़ित और अपमानित किया जा रहा है। जिसकी शिकायत हमने भारत सरकार के राजभाषा विभाग में भी की हुई है।
इस मामले में गत 18 मार्च को जब श्री मुकेश जैन ने अधिकरण के अध्यक्ष श्री स्वतन्त्र कुमार से भारतीय राजभाषा नियम 1976 के तहत हरित अधिकरण के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री स्वतन्त्र कुमार से आदेश हिन्दी में देने का विनम्र अनुरोध किया था तो श्री स्वतन्त्र कुमार ने इसे न्यायालय की अवमानना मानकर श्री मुकेश जैन के खिलाफ गिरफ्तारी के वारंट निकाल गिरफ्तार कराया था ।
लेकिन उनका कहना है कि हम हरित अधिकरण के इन अत्याचारों, गिरफ्तारी और प्रताड़ना से न दबने वाले और न ही टूटने वाले हैं।
हरित अधिकरण को हम अपनी याचिका का अंग्रेजी अनुवाद किसी भी हालत में नहीं देंगे। अधिकरण को जो कुछ भी करना हो कर ले। अधिकरण अपनी बन्दर घुडकियों से श्री श्री रविशंकर जी को डरा सकता हैं हम डरने वाले नहीं।
हिन्दी में दायर की याचिकाएं खारिज करने के मामले ने तूल पकड़ा !!
जब दोबारा एनजीटी ने 26 अक्टूबर 2016 को हिंदी में याचिका खारिज कर दी तो दिल्ली में अखिल भारत हिन्दू महासभा भवन में आयोजित हिन्दी और हिन्दू संगठनों की बैठक हुई । उसमें अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच और अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री चन्द्र प्रकाश कौशिक जी के नेतृत्व में निर्णय लिया गया कि राजभाषा हिन्दी विरोधी राष्ट्रीय हरित अधिकरण की ईंट से ईट बजाकर देशद्रोही ताकतों को मुंहतोड़ जवाब दिया जायेगा।
बैठक में श्री चन्द्र प्रकाश कौशिक ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा हिन्दी में दायर की गयी याचिकाओं को फिर से निरस्त करना अधिकरण की गुंडागर्दी बताते हुए सरकार और राजभाषा विभाग से पूछा है कि अधिकरण का सारा कामकाज हिन्दी में करने के माननीय राष्ट्रपति जी के आदेशों के बावजूद भी सर्वोच्च न्यायालय से आये न्यायधीश हिन्दी के साथ कब तलक अन्याय करते रहेंगे ???
इस बारे में माननीय राष्ट्रपति जी, गृहमंत्री जी और राजभाषा विभाग के सचिव को ज्ञापन देकर शिकायत भी दर्ज करायी गयी।

Thursday, December 1, 2016

तीन दशक बाद नहीं बचेगा एक भी हिंदू – प्रोफेसर डॉ. अब्दुल बरकत

632 हिंदू रोजाना छोड़ रहे हैं बांग्लादेश ।तीन दशक बाद नहीं बचेगा एक भी हिंदू – प्रोफेसर डॉ. अब्दुल बरकत
ढाका : बांग्लादेश से लगातार हो रहा हिंदुओं का पलायन एक चिंता का विषय बनता जा रहा है, अगर देश से इसी प्रकार पलायन होता रहा, तो अगले 30 वर्ष में बांग्लादेश में एक भी हिंदू नहीं बचेगा । ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. अब्दुल बरकत के अनुसार औसतन 632 हिंदू रोजाना बांग्लादेश छोड़ रहे हैं ।
दैनिक ट्रिब्यून की रिपोर्ट में प्रोफेसर बरकत के हवाले से कहा गया है कि पिछले 49 वर्ष में पलायन का जिस तरह का पैटर्न रहा है वो उसी दिशा की ओर बढ़ रहा है ।अगले तीन दशक में बांग्लादेश में एक भी हिंदू नहीं बचेगा ।
बरकत ने अपनी किताब ‘Political economy of reforming agriculture-land-water bodies in Bangladesh’ में ये बात कही है । ये किताब 19 नवंबर को प्रकाशित होकर आई है ।
exodus-of-hindus-from-bangladesh-is-growing-three-decades-later-there-will-be-no-hindu-

प्रोफेसर बरकत ने ढाका यूनिवर्सिटी में किताब के विमोचन के दौरान बताया कि 1964 से 2013 के बीच लगभग 1 करोड़ 13 लाख हिंदुओं ने धार्मिक भेदभाव और उत्पीड़न के कारण से बांग्लादेश छोड़ा । ये आंकड़ा औसतन हर दिन 632 का बैठता है । इसका अर्थ ये भी है कि हर वर्ष 2, 30, 612  हिंदू बांग्लादेश छोड़ रहे हैं ।
प्रोफेसर बरकत ने अपने 30 वर्ष के शोध के दौरान पाया कि अधिकतर हिंदुओं ने 1971 में बांग्लादेश को आजादी मिलने के बाद फौजी हुकूमतों के दौरान पलायन किया ।
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दिनों में हर दिन हिंदुओं के पलायन का आंकड़ा 705 था । 1971-1981 के बीच ये आंकड़ा 512  रहा । वहीं 1981-1991 के बीच औसतन 438 हिंदुओं ने हर दिन पलायन किया । 1991-2001 के बीच ये आंकडा बढ़कर 767  हो गया । वहीं 2001-2012 में हिंदुओं के हर दिन पलायन का आंकड़ा 774 रहा ।
ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अजय रॉय ने कहा कि, बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान के शासन वाले दिनों में सरकार ने अनामी प्रॉपर्टी का नाम देकर हिंदुओं की संपत्ति को जब्त कर लिया । स्वतंत्रता मिलने के बाद भी निहित संपत्ति के तौर पर सरकार ने कब्जा जमाए रखा । इसी वजह से लगभग 60 प्रतिशत हिंदू भूमिहीन हो गए ।
रिटायर्ड जस्टिस काजी इबादुल हक ने इस समय कहा है कि अल्पसंख्यकों और गरीबों को उनकी भूमि के अधिकार से वंचित कर दिया गया ।
प्रोफेसर बरकत ने अपनी किताब को बचपन के उन दोस्तों को समर्पित किया है जो ‘बुनो’ समुदाय से थे और अब उनका नामलेवा भी बांग्लादेश में नहीं बचा है ।
भारत में अल्पसंख्यक मुस्लिम पर कुछ होता है तो मीडिया दिन-रात खबरें दिखाती रहती है और सेक्युलर लोग उनके बचाव में टूट पड़ते है लेकिन बांग्लादेश में हररोज इतना हिन्दुओ का पलायन होना व उनके ऊपर इतना अत्याचार होने पर मीडिया और  सेक्युलर लोगों ने चुप्पी क्यों साधी है ???
आपको बता दें कि कश्मीर से पंडितों को भगा दिया गया और बाद में उत्तर प्रदेश में कैराना से भी कई हिन्दू परिवार पलायन कर गए । और भी कई जगहों के नाम सुनने में आये और अभी उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ में भी हिन्दू पलायन हो रहे हैं ।
अब एक ही उपाय है हिन्दू संगठित होकर अन्याय का प्रतिकार करें ।
नही तो एक ऐसा समय आयेगा कि हिन्दू नाम भी बोल नही पाओगे !!
ईसाई मिशनरियाँ और मुस्लिम देश दिन-रात हिंदुस्तान और पूरी दुनिया से हिन्दुस्तान को मिटाने में लगे हैं अतः हिन्दू सावधान रहें ।
अभी समय है हिन्दू एक होकर हिन्दुओं पर हो रहे प्रहार को रोके तभी हिन्दू बच पायेंगे ।हिन्दू होगा तभी सनातन संस्कृति बचेगी ।
अगर सनातन संस्कृति नही बचेगी तो दुनिया में इंसानियत ही नही बचेगी क्योंकि हिन्दू संस्कृति ही ऐसी है जिसने "वसुधैव कुटुम्बकम्" का वाक्य चरितार्थ करके दिखाया है ।
सदाचार व भाई-चारे की भावना अगर किसी संस्कृति में है तो वो सनातन संस्कृति है ।
शत्रु को भी क्षमा करने की ताकत अगर किसी संस्कृति में है तो वो सनातन संस्कृति है ।
प्राणिमात्र में ईश्वरत्व के दर्शन कर, सर्वोत्वकृष्ट ज्ञान प्राप्त कर जीव में से शिवत्व को प्रगट करने की क्षमता अगर किसी संस्कृति में है तो वो सनातन संस्कृति में है ।
ऐसी महान संस्कृति में हमारा जन्म हुआ है , हिन्दू संस्कृति को बचाने के लिए आज हिंदुओं को ही संगठित होने की जरुरत है ।

हिंदुओं के बहुलता वाले देश हिंदुस्तान में अगर आज हिन्दू पीड़ित है तो सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं की निष्क्रियता और अपनी महान संस्कृति की ओर विमुखता के कारण !!
जय हिन्द!